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प्रस्तावना
(बंकेय) का पुत्र था। उस समय समूचा वनवास (वनवासि) प्रदेश लोकादित्यक ही वशमे रहा। उपर्युक्त बंकापुर, श्रद्धेय पिता वीर बंकेयके नामसे लोकादित्यके द्वारा स्थापित किया गया था और उस जमाने में उसे एक समृद्धिशाली जैन राजधानी होनेका सौभाग्य प्राप्त था। बंकेग भी सामान्य व्यक्ति नहीं था। राष्ट्रकूट नरेश नृपतंगके लिए राज्यकामि जैन वीर बंकेय ही पथप्रदर्शक था । मुकुलका पुत्र एरकोरि, एरकोरिका पुत्र घोर और घोरका पुत्र बंकेय था। बंकेयका प्रपितामह मुकुल शुभतुंग कृष्णराज का, पितामह एरकोरि शुभतुंगके पुत्र ध्रुवदेव का, एवं पिता घोर चक्री गोविंद राज का राजकार्य-सारथि था। इससे सिद्ध होता है कि लोकादित्य और बंकेय ही नहीं, इनके पितामहादि भी राजकार्य पटु तथा महाशूर थे।।
नृपतुङ्गकी बंकेय पर अटूट श्रद्धा थी। वही कारण है कि एक लेखमें नृपतुंगने बंकेयके सम्बन्ध में 'विततज्योतिनिशितासिरिवापरः' कहा है। पहले बंकेय नृपतंगके आप्त सेनानायकके रूपमें अनेक युद्धों में विजय प्राप्त कर नरेशके पूर्ण कृपापात्र बननेके फलस्वरूप विशाल वनवास (बनवासि) प्रान्तका सामन्त बना दिया गया था। सामंत बंकेयने ही गङ्गराज राजमल्लको एक युद्ध में हरा कर बंदी बना लिया था। बल्कि इस विजयोपलक्ष्य में भरी सभामें वीर बंकेयको नृपपंगके द्वारा जब कोई अभीष्ट वर माँगनेकी आज्ञा हुई तब जिनभक्त बंकेयने सगद्गद महाराज नृपतुङ्गसे यह प्रार्थना की कि 'महाराज ! अब मेरी कोई लौकिक कामना बाकी नहीं रही। अगर आपको कुछ देना ही अभीष्ट हो तो कोलनूरमें मेरे द्वारा निर्मापित पवित्र जिनमन्दिरके लिए सुचारु रूपसे पूजादि कार्य-संचालनार्थ एक भू दान प्रदान कर सकते हैं, । बस, ऐसा ही किया गया। यह उल्लेख एक विशाल प्रस्तरखण्डमें शासन के रूपमें आज भी उपलब्ध होता है। बंकेयके असीम धर्मप्रेमके लिए यह एक उदाहरण ही पर्याप्त है। इस प्रसंगमें यह उल्लेख कर देना भी आवश्यक है कि वीर बंकेयकी धर्मपत्नी विजया बड़ी विदुषी रही। इसने संस्कृतमें एक काव्य रचा है। इस काव्यका एक पद्य श्रीमान् बेंकटेश भीम राव आलूर बी.ए.एल. एल.बी. ने 'कर्णाटकगतवैभव' नामक अपनी सुन्दर रचनामें उदाहरणके रूप में उद्धत किया है। बंकेयके सुयोग्य पुत्र लोकादित्यमें भी पूज्य पिताके समान धर्म प्रेमका होना स्वाभाविक ही है, साथ ही साथ लोकादित्य पर 'उत्तरपुराणके रचयिता श्री गुणभद्राचार्यका प्रभाव भी पर्याप्त था । इसमें सन्देह नहीं कि धर्मधुरीण लोकादित्यके कारण बंकापुर उस समय जैन धर्मका प्रमुख केन्द्र बन गया था। यद्यपि लोकादित्य राष्टकूट-नरेशोंका सामन्त था फिर भी राष्ट कूट शासकोंके शासनकालमें यह एक वैशिष्टय था कि उनके सभी सामन्त स्वतन्त्र रहे। आचार्य गुणभद्रके शब्दों में लोकादित्य शत्रु रूपी अन्धकारको मिटानेवाला एक ख्यातिप्राप्त प्रतापी शासक ही नहीं था, साथ ही साथ श्रीमान् भी था। उस जमानेमें बंकापुरमें कई जिन-मन्दिर थे। इन मन्दिरोंको चालुक्यादि शासकोंसे दान भी मिला था। बंकापुर एक प्रमुख केन्द्र होनेसे वहां पर जैनाचार्योका वास अधिक रहता था। यही कारण है कि इसकी गणना एक पवित्र क्षेत्रके रूपमें होती थी। इसीलिए ही गङ्गनरंश नारसिंह जैसे प्रतापी शासकन वहीं आकर प्रातःस्मरणीय जैन गुरुओंके पादमूलमें सल्लेखना व्रत सम्पन्न किया था। टंडाधिप हुलने वहाँपर कैलास जैसा उत्तुङ्ग एक जिनमन्दिर निर्माण कराया था। इतना ही नहीं, प्राचीनकालमें वहाँ पर एक दो नहीं, पाँच महाविद्यालय मौजूद थे। ये सब बीती हुई बातें हुई। वर्तमान कालमें बंकापुरकी स्थिति कैसी है इसे भी विज्ञ पाठक अवश्य सुन लें। सरकारी रास्तेके बगलमें उन्नत एवं विशाल मैदानमें एक ध्वंसावशिष्ट पुराना किला है। इस किलाके अन्दर १२ एकड़ जमीन है। यह किला बम्बई सरकारके वशमें है। वहाँ पर इस समय सरकारने एक डेरीफार्म खोल रखा है। जहाँ-तहाँ खेती भी होती है। राजमहलका स्थान ऊँचा है और इसके चारों ओर विशाल मैदान है। वह मैदान इन दिनों खेतोंके रूपमें
ता है। इन विशाल खेतोंमें आजकल ज्वार, बाजरा, गेहूँ, चावल, उड़द, मूंग, चना, तुवर, कपास और मूंगफली आदि पैदा होते हैं। स्थान बड़ा सुन्दर है, अपनी समृद्धिके जमाने में यह स्थान
१ "सरस्वती व कर्णाटी विजयाङ्का जयत्यसौ । या वैदर्मीगिरां वासः कालिदासादनन्तरम् ॥" २. बम्बई प्रान्तके जैन स्मारक देखें।
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