________________
महापुराणान्तगत उत्तरपुराण
१२ पंक्तियाँ हैं और प्रति पंक्तिमें ३० से ४० तक अक्षर हैं। अक्षर सुवाच्य हैं, बीच-बीच में कठिन पदोंके टिप्पण भी आजू-बाजूमें दिये गये हैं। पुस्तककी दशा अच्छी है, प्रायः शुद्ध है, लेखन-काल १८०५ है, जेठबदी पञ्चमी गुरुवारको सवाई जयपुरमें विमलसागर यतिके द्वारा लिखी गई है। इसका सांकेतिक नाम 'म' है।
एक प्रति और उत्तर पुराण संस्कृतकी पाण्डुलिपि भारतीय ज्ञानपीठ बनारसमें हुई है। प्रारम्भसे लेकर नमिनाथपुराण तक तो यह पं. लालारामजी शास्त्रीकृत अनुवाद सहित मुद्रित प्रतिसे हुई है और उसके बाद किसी हस्तलिखित प्रतिसे हुई है। यह प्रति कहाँ से आई, कैसे आई इसका परिचय ज्ञानपीठके व्यवस्थापक महाशयके स्थानान्तरित हो नानेके कारण नहीं जान सका । एक पत्र मैंने पं. महेन्द्रकुमारी न्यायाचार्य भूतपूर्व व्यवस्थापकको उस प्रतिका परिचय प्राप्त करनेकी इच्छासे लिखा भी था पर कुछ उत्तर प्राप्त नहीं हुआ। प्रत्यक्ष भी चर्चा की थी पर उन्होंने कहा कि समय अधिक हो जानेसे स्मरण नहीं है। वर्तमान व्यवस्थापकजीको इस विषयकी जानकारी नहीं है। अस्तु, यह प्रति शुद्ध मालूम होती है
और जहाँ कहीं अन्य प्रतियोंसे विभिन्न पाठान्तर लिये हुए हैं। इस प्रतिके पाठोंका उल्लेख मैंने 'इत्यपि क्वचित्' इन शब्दों द्वारा किया है।
२. उत्तरपुराण उत्तरपुराण, महापुराणका पूरकभाग है। इसमें अजितनाथको आदि लेकर २३ तीर्थकर, सगरको आदि लेकर ११ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण तथा उनके कालमें होनेवाले विशिष्ट पुरुषोंके कथानक दिये गये हैं। विशिष्ट कथानकोमें कितने ही कथानक इतने रोचक ढङ्गसे लिखे गये हैं कि उन्हें प्रारम्भकर पूरा किये बिना बीचमें छोड़नेको जी नहीं चाहता। यद्यपि आठवें, सोलहवें, बाईसवें तेईसवें और चौबीसवें तीर्थकरको छोड़कर अन्य तीर्थंकरोंके चरित्र अत्यन्त संक्षेपसे लिखे गये हैं परन्तु वर्णन शैलीकी मधुरतासे वह संक्षेप भी रुचिकर ही प्रतीत होता है। इस ग्रन्थमें न केवल पौराणिक कथानक ही है किन्तु कुछ ऐसे स्थल भी हैं जिनमें सिद्धान्तकी दृष्टिसे सम्यग्दर्शनादिका और दार्शनिक दृष्टिसे सृष्टिकर्तृत्व आदि विषयोंका भी अच्छा विवेचन हआ है।
रचयिता गुणभद्राचार्यका ऐतिहासिक विवेचन महापुराण प्रथम भागकी भूमिकामें विस्तारसे दे चुका हूँ अतः यहाँ फिरसे देना अनावश्यक है।
३. उत्तरपुराणका रचना-स्थल-बङ्कापुर उत्तर पुराणकी रचना बंकापुरमें हुई है इसका परिचय प्राप्त करनेकी मेरी बड़ी इच्छा थी परन्तु साधनके अभावमें उसके सफल होनेकी आशा नहीं थी। एक दिन विद्याभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री मूडबिगीने अपने एक पत्र में संकेत किया कि 'यदि उत्तरपुराणकी भूमिकामें उसके रचना-स्थल बंकापुर का परिचय देना चाहें तो भेज दूं'। मैंने शास्त्रीजीकी इस कृपाको अनभ्रवृष्टि जैसा समक्ष भूमिकामें बंकापरका परिचय देना स्वीकृत कर लिया। फलस्वरूप शास्त्रीजीने बंकापुरका जो परिचय भेजा है वह उन्हींके शब्दोंमें दे रहा हूँ
"बंकापुर,पूना-बेंगलूर रेलवे लाइनमें हरिहरस्टेशनके समीपवर्ती हावेरि रेलवेस्टेशन से १५ मील पर धारवाड जिले में है। यह वह पवित्र स्थान है, जहाँ पर प्रातःस्मरणीय आचार्य गुणभद्र ने शक संवत्
८१९ में अपने गुरु भगवजिनसेनके विश्रुत महापुराणान्तर्गत उत्तरपुराणको समाप्त किया था। आचार्य जिनसेन और गुणभद्र जैन संसारके ख्यातिप्राप्त महाकवियोंमें से हैं इस बातको साहित्य संसार अच्छी तरह जानता है। संस्कृत साहित्यमें महापुराण वस्तुतः एक अनूठा रन है। उत्तरपुराण के समाप्ति-कालमें
कापरमें जैन वीर बंकियका सुयोग्य पुत्र लोकादित्य, विजयनगरके यशस्वी एवं शासक अकालवर्ष वा कृष्णराज (द्वितीय) के सामन्तके रूपमें राज्य करता था। लोकादित्य महाशूर वीर, तेजस्वी और शत्रुजियोथा। इसकी ध्वजामें चिल्ल या चीलका चिह्न अंकित था और वह चेल्ल चीलजका अनुज तथा चेलकेत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org