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महापुराणान्तर्गत उत्तर पुराण
चित्रणका प्राचुर्य तथा पचरचनाकी धारावाहिकता आदि गुण दृष्टिगोचर होते हैं उनसे प्रोफेसर पाठक बहुत आकर्षित हुए। संस्कृत साहित्य के इतिहासकी यह भी एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है कि जिनसेन अपनी इस रचनाको अपूर्ण छोड़कर परलोक सिधार गये। उनके शिष्य गुणभद्रने बड़े संकोचके साथ, कुछ काल ठहर कर, अपने गुरुके प्रति पुण्य कर्तव्य समझकर, इस ग्रन्थको सन् ८९७ ईस्वीमें पूर्ण किया और गुणभद्रके शिष्य लोकसेनने उसकी प्रतिष्ठा कराई। यह एक बड़ी स्मरणीय घटना है कि वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र इन तीनोंका अविच्छिन्न और सुसंघटित एक ही साहित्यिक व्यक्तित्व पाया जाता है। इस असाधारण त्रिमूर्तिका अवतार धवला, जयचवला और महापुराण इन तीन भारतीय साहित्यकी निधियोंको उत्पन्न करनेके लिए हुआ जान पड़ता है, क्योंकि उक्त ग्रंथ एक व्यक्ति द्वारा एक जीवनकालमें सम्पन्न करना असंभव था ।
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अपने गुरुकी कृति महापुराणकी पूर्तिके अतिरिक्त गुणभवने दो और संस्कृत ग्रन्थोंकी रचना कीएक 'आत्मानुशासन' जिसमें धार्मिक व नैतिक २७२ पर्योका समावेश है; और दूसरी 'जिनदराचरित' जो नौ सगका प्रबन्ध काव्य है।
संस्कृत साहित्यके और विशेषतः जैन साहित्य के अनुरागी श्रीमान् सेठ शान्तिप्रसादजी तथा उनकी विदुषी धर्मपत्नी श्रीमती रमारानीजीके बहुत कृतज्ञ हैं, क्योंकि उन्होंने भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापना करके बड़े महत्त्वपूर्ण संस्कृत और प्राकृत ग्रन्थोंका प्रकाशन किया है और कर रहे हैं। इस प्रकाशनमें व्ययकी कोई चिन्ता न कर उन्होंने केवल यह प्रशंसनीय ध्येय रखा है कि प्राचीन भारतीय साहित्य के सुन्दर र अन्धकार में पड़े न रह जायें। इस सम्बन्धमें उनके निस्वार्थ त्याग और साहित्य प्रेमकी पूर्णतः सराहना करना शब्दसामर्थ्य से बाहर की बात है । जहाँ 'ज्ञानपीठ लोकोदय ग्रंथमाला' जन साधारण में ज्ञानप्रसारका कार्य कर रही है, वह 'ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन प्रथमाला' भारतकी प्राचीन साहित्यिक निधि, और विशेषतः उसके उपेक्षित अङ्गका विनीत भावसे सरकार और उत्कर्ष कर रही है। इस प्रकार ज्ञानपीठ एक श्रेष्ठ राष्ट्रीय ध्येय व महान् सांस्कृतिक प्रयोजनकी पूर्ति में संख्झ है। उसके समुन्नतिमें भी सहायक हो रहे हैं।
समस्त प्रकाशन राष्ट्रभाषा हिन्दीकी
भारतीय ज्ञानपीठके मंत्री श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीय ज्ञानपीठके कार्यको गतिशील बनाये रखने में बड़ी तत्परता और लगनसे प्रयमशील है।
महापुराण के इस संस्करणको हिन्दी अनुवाद सहित सुसज्जित करनेके लिए पं० पश्चालालजी साहित्याचार्य हमारे धन्यवादके पात्र हैं ।
हमें पूर्ण आशा और भरोसा है कि यह संस्करण महापुराणके नाना दृष्टियोंसे अध्ययन अन्वेषण कार्य में नव-स्फूर्तिदायक सिद्ध होगा ।
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हीरालाल जैन आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये
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