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महापुराणान्तर्गत उत्तरपुराण महापुराणकी रचनामें भाचार्य जिनसेन और गुणभद्रने आगमिक परम्परा तथा यतिवृषभकृत तिलोय-पण्णशिव कवि परमेष्ठि कृत 'वागर्थ संग्रह' जैसीआगमोत्तर रचनाओंका भी बहुत कुछ आधार लिया है। किन्तु उनकी यह कृति इतनी प्रामाणिक, सनिपूर्ण और श्रेष्ठ सिद्ध हुई कि उसकी तत्तविषयक पूर्वकालीन रचनाएँ प्रायः अन्धकारमें पड़ गई। अतः यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं कि कवि परमेष्ठी जैसे ग्रंथकारोंकी रचनाएं उपेक्षित हो गई और क्रमसे कालके गालमें समा गई।
यह महापुराण अपभ्रश कवि पुष्पदन्त, संस्कृत कवि हेमचन्द्र और माशाधर, कन्नड कवि चामुण्डराय एवं श्रीपुराणकार तामिल कवि आदिकी रचनाओंके लिए यदि साक्षात् और एकमात्र आधार नहीं तो आदर्श अवश्य रहा है। इसके अतिरिक्त जिन जैन लेखकोंने किसी एक तीर्थकर, चक्रवर्ती अथवा बाहुबली, प्रद्युम्न, जीवंधर आदि प्राचीन महापुरुषका चरित्र लिखा है, वे भी अपनी रचनाओंके पोषक वर्णन और विस्तारके लिए इन्हीं ग्रंथोंके ऋणी हैं।
महापुराण दो भागोंमें विभक्त है। प्रथमभाग आदिपुराण कहलाता है और उसमें सैंतालीस पर्व हैं। द्वितीयभाग उत्तरपुराणके अन्तर्गत उनतीस पर्व हैं। इस प्रकार पूरा महापुराण छिहत्तर पर्यों में समास हुआ है जिनका समस्त ग्रंथान लगभग बीस हजार श्लोक-प्रमाण है। आदिपुराणके व्यालीस पर्व और तेतालीसवें पर्वके तीन पद्य, जिनका श्लोक प्रमाण लगभग बारह हजार होता है, आचार्य जिनसेन कृत हैं और ग्रंथका शेषमाग उनके शिष्य आचार्य गुणभद्रकी रचना है। भादिपुराणमें प्रथम तीर्थकर और प्रथम चक्रवर्ती इन दो का ही चरित्र वणित हो पाया है। शेष इकसठ शलाका पुरुषोंका जीवन चरित्र उत्तरपुराण में ग्रथित हुआ है। इससे स्पष्ट है कि उत्तरपुराणके कोई पाठहजार श्लोक प्रमाणमें वर्णन-विस्तारकी अपेक्षा नाम-धामोल्लेख ही अधिक है।
जैनधर्मके विविध अंगोंके सुयोग्य व्याख्याता तथा संस्कृत भाषाके सफल कलाकारके नाते जिनसेन अपनी रचनाके प्रमाण और गुण इन दोनों दृष्टियोंसे भारतीय साहित्यमें एक अद्वितीय स्थान रखते हैं। उनके वैयक्तिक जीवनके सम्बन्धमें हमारी जानकारी बहुत कम है, तथापि अपनी जयधवला टीकाके अन्तमें उन्होंने जो कुछ पद्य-रचना की है उससे उनके व्यक्तित्वकी कुछ झलकें मिल जाती हैं। जान पड़ता है, उन्होंने अपने बाल्यकालमें ही जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली थी, और तभीसे वे निरन्तर कठोर ब्रह्मचर्यके पालन एवं धार्मिक व साहित्यिक प्रवृत्तियों में ही पूर्णत: संलग्न रहे । यद्यपि वे शरीरसे कृश थे और देखने में सुन्दर भी नहीं थे, तथापि वे तपस्यामें सुदृढ और बुद्धि, धैर्य एवं विनयादि गुणोंमें प्रतिभावान् थे। वे ज्ञान और अध्यात्मके मूर्तिमान् अवतार ही कहे जा सकते हैं।
मुनिधर्मकी दृष्टिसे जिनसेन एक व्यक्तिमात्र नहीं किन्तु एक संस्थाके समान थे। वे वीरसेन जैसे महान् गुरुके महान् शिष्य थे। उन्होंने अपने गुरुकी जयधवला टीकाको शक संवत् ७५९ (सन् ८३७ ई.) में समाप्त किया। उसी प्रकार उनके शिष्य गुगभद्रने उनकी मृत्युके पश्चात् उनके महापुराणको शक सं० ८१९ (सन् ८९७ ईस्वी) से कुछ पूर्व पूर्ण किया। वे पचस्तूपान्वय नामक मुनि सम्प्रदायके सदस्य थे। इसी सम्प्रदायमें गुहनन्दी, वृषभनन्दी, चन्द्रसेन, आर्यनन्दी और वीरसेन भी हर थे। इस पंचस्तूपान्वयका मुख्य केन्द्र किसी समय उत्तर-पूर्व भारतमें था। अनुमानतः इसी अन्वयके मुनि जैन कर्म-सिद्धान्त सम्बन्धी ज्ञानके सबसे बड़े संरक्षक थे। वे राजपूताना और गुजरात होते हुए दक्षिण भारतमें श्रवणबेल्गुल तक पहुँचे। वे जहाँ गये वहाँ अपने परम्परागत कर्मसिद्धान्तके ज्ञानको लेते गये, और कठोर तपस्याके धार्मिक मार्गका भी अनुसरण करते रहे। वीरसेन और जिनसेनने ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त की कि उनके पश्चात् उनका मुनिसम्प्रदाय पंचस्तूपान्वयके स्थानपर सेनान्वय अथवा सेनगणके नामसे ही अधिक प्रसिद्ध हो गया।
जिनसेनका काल राजनैतिक स्थैर्य और समृद्धि एवं शास्त्रीय समुन्नतिका युग था। उनके समकालीन नरेश राष्ट्रकूटवंशी जगतंग और नृपतुङ्ग अपरनाम अमोघवर्ष (सन् ८१५-८७७) थे। इनकी राजधानी मान्यखेट थी जहाँ विद्वानोंका अच्छा समागम हुआ करता था। अमोघवर्ष केवल एक प्रबल सम्राट ही नहीं थे, किन्तु वे साहित्यके आश्रयदाता भी थे। स्वयं भी वे शास्त्रीय चर्चामें रुचि और साहित्यिक योग्यता रखते थे। अलंकार-विषयक एक कन्नडग्रंथ 'कविराजमार्ग' उनकी कृति
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