Book Title: Uttara Purana
Author(s): Gunbhadrasuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 15
________________ प्रास्ताविक 1 कही जाती है। वे जिनसेनके बड़े भक्त थे और जिनसेनके संयम और साहित्यिक गुणोंसे खूब प्रभावित हुए प्रतीत होते हैं वे शीघ्र ही जैनधर्मके पक्क े अनुयायी हो गये। उनके संस्कृतक व्य 'प्रश्नोतररणमाला' तथा उनके समकालीन महावीराचार्य कृत 'गणितसार संग्रह 'के सुस्पष्ट उल्लेखोंके अनुसार उन्होंने राज्य स्यागकर धार्मिक जीवन स्वीकार किया था ( देखिये प्रो० हीरालाल जैन 'राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्षकी जैनदीक्षा' जै० सि० भास्कर भा० ९क० १ तथा अनेकान्त, वर्ष ५, पृ० १८३ - १०७ ) उनका राज्यकाल खूप विजयी और समृद्धिशाली रहा, तथा वे दीर्घकाल तक जीवित रहे । जिनसेन ने वीरसेन और जयसेन जैसे गुरुओं से व्याकरण अलङ्कार, न्याय आदि परम्परागत नाना विद्यार्थीको सीखकर अपनी साहित्यिक सृष्टि अनुमानतः शक सं० ७०५ ( सन् ७८२ ) से कुछ पूर्व संस्कृत काव्य पार्श्वाभ्युदयकी रचनासे की यह काव्य संस्कृत साहित्य में अनूठा माना जाता है। । इस कविता कविने अपने प्रत्येक पचमें अनुक्रमसे कालिदास कृत मेघदूत नामक खण्ड-काकी एक या दो पंक्तियाँ अनुबद्ध की हैं और शेष पंक्तियाँ स्वयं बनाई हैं। इस प्रकार उन्होंने अपने काव्य में समस्यापूर्ति के काव्य कौशल द्वारा समस्त मेघदूतको प्रथित कर लिया है। यद्यपि दोनों काव्योंका कथाभाग परस्पर सर्वथा भिन्न है, तथापि मेघदूतकी पंक्तियाँ पार्श्वाभ्युदय में बड़े ही सुन्दर और स्वाभाविक ढङ्गले बैठ गई हैं। समस्यापूर्तिकी कहा कविपर अनेक नियन्त्रण लगा देती है। तथापि जिनसेनने अपनी रचनाको ऐसी कुशलता और चतुराईसे सम्हाला है कि पार्श्वाभ्युदय के पाठकको कहीं भी यह सन्देह नहीं हो पाता कि उसमें अन्यविषयक व भिन्न प्रसंगात्मक एक पृथक् काव्यका भी समावेश है । इस प्रकार पार्श्वाभ्युदय जिनसेनके संस्कृत भाषापर अधिकार तथा काव्य कौशलका एक सुन्दर प्रमाग है। उन्होंने जो कालिदास के काव्यकी प्रशंसा की है उससे तो उनका व्यक्तित्व और भी ऊँचा उठ जाता है । महान् कवि ही अपनी कवितामें दूसरे कविकी प्रशंसा कर सकता है। इस काव्य के सम्बन्ध में प्रोफेसर के० बी० पाठकका मत है कि "पार्श्वाभ्युदय संस्कृत साहित्यकी एक अद्भुत रचना है। वह अपने युगकी साहित्यिक रुचिकी उपज और आदर्श है। भारतीय कवियोंमें सर्वोच्चस्थान सर्वसम्मतिसे कालिदासको मिला है तथापि मेघदूतके कर्ताकी अपेक्षा जिनसेन अधिक प्रतिभाशाली कवि माने जानेके योग्य हैं।" ( जर्नल, बाम्बे ब्रांच, रायल एशियाटिक सोसायटी, संख्या ४९, व्हा० १८ ( १८९२ ) तथा पाठक द्वारा सम्पादित 'मेघदूत' द्वि० संस्करण, पूना १९१६ भूमिका पृ० २३ आदि ) 1 अपनी पट्खंडागम-टीकाको बहत्तर हजार लोक प्रमाण ग्रंथाग्रमें समाप्त करनेके पश्चात् वीरसेन स्वामीने कपाय प्राभृतपर जयधवला टीका लिखना प्रारम्भ किया। इसकी बीस हजार श्लोकप्रमाण ही रचना हो पाई थी कि उनका स्वर्गवास हो गया । अतः उस टीकाको पूरा करनेका कार्य उनके सुयोग्य शिष्य जिनसेन पर पड़ा। इन्होंने इस महान् और पवित्र ग्रंथको अपनी चालीस हजार लोकप्रमाण रचना द्वारा सन् ८३८ ईस्वी में समाप्त किया । ये विशाल टीकाएँ उनके कर्ताओंके गम्भीर ज्ञानों तथा जैनधर्मके समस्त अंगों और विशेषतः कर्मसिद्धान्तके महान् पाण्डित्यकी परिचायक हैं। इन रचनाओं तद्विषयक समस्त ज्ञातव्य बातोंका एवं प्रायः पूर्वकालीन संस्कृत प्राकृत टीकाओंका समावेश कर लिया गया है। जिनसेनाचार्यका काव्यकौशल उनके स्मरणीय काव्य पार्श्वाभ्युदयसे एवं उनकी विशाल विद्वता उनकी अमर टीका जयधवलासे सुस्पष्ट है। महापुराणमें उनकी यही द्विमुखी प्रतिभा और भी खूब विकसित रूप में दृष्टिगोचर हो रही है । जैन पुराण और सिद्धान्तकी दृष्टिसे तो महापुराणका विशेषज्ञों द्वारा पर्याप्त आदर किया जाता है; किन्तु इस रचनाके साहित्यिक गुणों की ओर संस्कृतशोका जितना चाहिये उतना ध्यान नहीं गया। महापुराणके अनेक खंड संस्कृत काव्यके अति सुन्दर उदाहरण हैं । इस क्षेत्र में जिनसेनने अपने पूर्वकालीन कवियोंकी कृतियोंसे सुपरिचय प्रकट किया है। उन्होंने संस्कृत भाषाका प्रयोग बड़े सरल और स्वाभाविक ढंग से करके भी उसे एक उत्कर्ष प्रदान किया है। उनका सहस्रनाम स्तोत्र बतला रहा है कि उन्होंने संस्कृत भाषा, व्याकरण और शब्दभण्डार के सामर्थ्य और दौर्बल्य, दोनोंसे कितना अधिक लाभ उठाया है। वे पथरचना के परिपक्क विद्वान है और जहाँ तहाँ उन्होंने चित्रकाव्यको भी अपनाया है। उनके वर्णन अति समृद्ध तथा शब्द और अर्थात्मक अलंकारोंसे भरे हुए हैं। उनके महापुराण में जो कल्पनाका उत्कर्ष, Jain Education International For Private & Personal Use Only ३ www.jainelibrary.org

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