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सूरि - परिचय |
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पहिले यह नियम था कि, गृहस्थ लोग अपनी संतानको व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करानेके लिए जैसे पाठशालाओं में भेजते थे, वैसे ही धार्मिक ज्ञान प्राप्त कराने, अन्तःकरण में धार्मिक संस्कार जमाने और धार्मिक क्रियाओंसे परिचित कराने के लिए धर्मगुरुओंके पास भी नियमित रूपसे भेजा करते थे । वर्तमानके गृहस्थोंकी भाँति वे इस बात का भय नहीं रखते थे कि, साधुओंके पास मेजने से कहीं हमारी सन्तान साधु न हो जाय । साधु होनेमें अथवा अपने पुत्रको यदि वह साधु बनना चाहता तो उसे साधु बनानेमें पहिले के लोग अपना और अपने कुलका गौरव समझते थे । इतना जरूर था कि, जो साधु बनने की इच्छा रखता था, उसको वे लोग पहिले यह समझा देते थे कि, साधुधर्म में कितनी कठिनता है । मगर ऐसा कभी नहीं होता था कि, अपनी संतानको साधु बनने से रोकने के लिए वे लड़ाईझगड़ा करते या कोर्टों में जाते । इतना ही क्यों, कई तो ऐसे भवभीरु और निकष्टभवी भी होते थे जो अपनी सन्तानको, बचपनहीसे साधु के समर्पण करने में अपना सौभाग्य समझते थे । यदि ऐसा नहीं होता तो हेमचंद्राचार्य ९ वर्षकी आयुमें, आनंदविमलसूरि ५ वर्षकी उम्र में, विजयसेनसूरि ९ वर्षकी आयुमें, विजयदेवसूरि ९ वर्षकी आयु में, विजयानंदसूरि ९ वर्षकी आयुमें, विजयप्रभसूरि ९ वर्षकी आयु में, विजयदानसूरि ९ वर्षकी आयु में, मुनिसुंदरसूरि ७ वर्षकी आयु और सोमसुंदरसूरि ७ वर्षकी आयु में - ऐसे छोटी छोटी उम्र में कैसे दीक्षा ले सकते थे ?
इससे किसीको यह नहीं समझना चाहिए कि, जो कमाने योग्य नहीं होते थे वे साधु हो जाते थे । अथवा उनके संरक्षक उन्हें साधु बना देते थे । हमें उनके चरित्रोंसे यह बात भली हो जाती है कि, वे लोग प्रायः उच्च और धनी कुटुंबहीकी सन्तान थे ।
प्रकार मालूम
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