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आमंत्रण |
दासने लिखा है कि, अकबरने उस वक्त प्रसन्न हो कर चंपाको एक बहुमूल्य सोनेका चूड़ा पहिनाया था और शाही बाजे भेज कर वरघोड़ेकी शोभाको द्विगुण कर दिया था ।
'जगद्गुरु काव्य ' के कर्ता श्रीपद्मसागरगणि अपने काव्य में यह भी लिखते हैं कि, - अकबरने इस बाईकी तपस्याकी परीक्षा करनेके लिए महीने, डेढ़ महीने तक उसे एक मकान में रक्खा था और उसकी संभाळ रखने के लिए अपने आदमी नियत किये थे । इस परीक्षा में अकबरको चंपाकी सद्भावना पर विश्वास हो गया । उसने उसमें कपट नहीं दिखा । फिर उसने यह जान कर कि, हीरविजयसूरि उसके ( चंपाके ) गुरु हैं, थानसिंह नामके एक जैन गृहस्थसे- जो अकबर के दर्वारमें रहता था - उनका पता दर्यापत कर लिया था ।
मगर 'विजयप्रशस्ति' काव्य के कर्ता श्रीहेमविजयगणि कहते हैं कि, अकबरने होरविजयसूरिको बुलानेका निश्चय ऐतमादखाँसे उनकी प्रशंसा सुन कर ही किया था ।
चाहे किसी भी तरहसे हो, यह तो निश्चित है कि, अकबरने . हीरविजयसूरि के नामका परिचय पा कर उनसे मिलना स्थिर किया । उसकी मिलने की इच्छा इतनी उत्कट हुई कि उसने तत्काल ही मानुकल्याण और थानसिंह रामजी नामक दो जैन गृहस्थोंको और धर्मसी पंन्यासको बुलाया और उनसे कहाः " तुम श्रीहीरविजयसूरको यहाँ आने के लिए एक विनतिपत्र लिखो । मैं भी एक खत लिख देता हूँ । "
पारस्परिक सम्मति से दोनों पत्र लिखे गये । श्रावकोंने सूरिजीको पत्र लिखा और बादशाहने लिखा उस समय के गुजरातके सूबेदार शहाबखाँ (शहाबुद्दीन अहमद खाँ) को । बादशाहने पत्र में साधारण
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