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सूरीश्वर और सम्राट् ।
इसके सिवाय भी सूरिजीने कई ऐसे उदाहरण दिये जिनसे यह प्रमाणित होता था कि, प्रत्येक मनुष्य मूर्त्तिको मानता ही है । उसके बाद खानखानाने पूछा:
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" यह ठीक हैं कि, मूर्तिको माननेकी आवश्यकता है, लोगमानते भी हैं; मगर यह बताइए कि, मूर्त्तिकी पूजा किस लिए करनी चाहिए और वह मूर्ति हमें क्या फायदा पहुँचा सकती है ?
सूरिजीने उत्तर दिया:- " महानुभाव ! जो मनुष्य मूर्त्तिकी पूजा करते हैं, वे वस्तुतः उस मूर्तिको नहीं पूजते हैं; वे तो उस मूर्त्तिके द्वारा ईश्वरकी पूजा करते हैं। पूजा करते समय पूजकका यह भाव नहीं होता है कि मैं इस पत्थरको पूज रहा हूँ। वह तो यही सोचता है कि- मैं परमात्माकी पूजा कर रहा हूँ। मुसलमान लोग मसजिदमें, या नहीं कहीं वे नमाज पढ़ते हैं वहाँ, पश्चिम दिशाकी ओर मुख रखते हैं । उस समय वे यह नहीं समझते हैं कि, हम दीवार के सामने जो उनके सामने होती है - नमाज़ पढ़ते हैं, मगर वे यह समझते हैं कि पश्चिम दिशामें मक्का है, उसीके सामने हम नमाज़ पढ़ रहे हैं । जिस लक्कड़को घड़ -' कर चौकी बना ली जाती है, वह लक्कड़ चौकीहीके नामसे पुकारा जाता
| उसे कोई लक्कड़ नहीं कहता । संसारमें स्त्रियाँ सत्र एकसी हैं; परंतु पुरुष अपनी सहधर्मिणी उसीको मानता है जिसके साथ उसका पाणिग्रहण हुआ है । अर्थात् उस स्त्रीमें अपनी पत्नी माननेकी भावना स्थापित करता है । इसी भाँति पत्थर वास्तव में तो पत्थर ही है; मगर जो पत्थर घड़कर मूर्ति बनाया जाता है और मंत्रादि विधि से जो स्थापित होता है, उसमें परमात्माहीका आरोप किया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि, मूर्तिकी पूजा करने वाले पत्थरकी पूजा नहीं करते हैं, बल्कि मूर्त्तिद्वारा परमात्माकी पूना करते हैं ।
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