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प्रकरण आठवाँ ।
दीक्षादान |
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वरत अपना काम किये ही जाती है। कुदरती कानूनोंके विरुद्ध चलने की कोशिशमें मनुष्यको कभी सफलता नहीं मिलती । समयके अनुकूल प्रत्येक प्रवृत्ति में परिवर्तन हुआ ही करता है । आबू गिरिनार, तारंगा, पालीताना और राणपुर आदिके गगनस्पर्शी और भव्य मंदिर आज भी भारतकी प्राचीन विभूतिका प्रत्यक्ष प्रमाण दे रहे हैं । उनको देखनेसे कइयोंके मनमें यह प्रश्न उठा करता है कि, " उस कालके वे लक्ष्मीपुत्र कैसे थे कि, जिन्होंने अपनी अखूट लक्ष्मीका व्यय ऐसे मंदिर बनवानेमें किया ! क्यों नहीं उन्हें बोर्डिंग, बालाश्रम, विश्वविद्यालय, अनाथाश्रम और पाठशालाएँ आदि स्थापन करनेका खयाल आया ? "
ऐसी कल्पना करनेवाले यदि थोड़ा बहुत संसारकी परिवर्तनशीलताका अवलोकन करेंगे तो उनका हृदय ही उनके प्रश्नका उत्तर दे देगा । कोई समय समान नहीं रहता । उसमें परिवर्तन हुआ ही करता है । जिस जमाने में जैसे कार्योंकी आवश्यक्ता मालूम होती है उस जमाने में मनुष्यों की बुद्धि उसी प्रकारकी हो जाती है । कोई काल दर्शन उदयका आता है । उस समय लोगोंकी प्रवृत्ति मुख्यतया स्थान स्थान पर मंदिर बनवाने, प्रतिष्ठाएँ करवाने, संच निकालने और बड़े बड़े उत्सव करानेकी तरफ होती हैं । कोई समय ज्ञानके
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