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जीवनकी सार्थकता।
सूरिजीने उसे खाई । साधु लोग अभी आहारपानी कर भी न चुके थे कि, वह श्रावक-जिसके यहाँसे खिचड़ी आई थी-दौड़ता हुआ आया और मूरिजीके शिष्योंको कहने लगा:-" आज मुझसे बहुत बड़ा अनर्थ हो गया है । मेरे यहाँसे जो खिचड़ी आई है वह बहुत खारी है। इतनी खारी है कि, मैं उसका एकसे दूसारा नवाला तक न ले सका।" यह बात सुनकर साधु निस्तब्ध हो गये । कारण-दैवयोगसे उस दिन मूरिजीने उसके यहाँकी खिचड़ी ही खाई थी और खाते हुए उन्होंने किसी भी प्रकारसे यह प्रकट नहीं होने दिया था कि, खिचड़ी खारी है । वे सदाकी भाँती ही सन्तोषपूर्वक खाते रहे थे। इस घटनासे यह प्रकट हो जाता है कि, अपनी रसनेन्द्रियपर उनका कितना अधिकार था । रसनेन्द्रियको अधिकारमें करना कितना कठिन है इसको हरेक समझ सकता है। अन्यान्य इन्द्रिय-विषयोंपर अधिकार करनेवाले हजारों मनुष्य होंगे; परन्तु रसना इन्द्रियको न रुचे इस प्रकारकी वस्तु प्राप्त होनेपर भी सन्तोषपूर्वक-उसका मनमें दुर्भाव लाये बिना उपयोग करनेवाले तो विरले ही निकलेंगे । हरेक मनुष्यको, खास करके साधुओंको, जिनके निर्वाहका आधार केवल भिक्षावृत्ति ही है; जो संसारत्यागी हैं-तो रसना इन्द्रियको अपने काबूमें करनी ही चाहिए । कई नामधारी साधु साधुओंके लिए अग्राह्य पदार्थको भी कई बार ग्रहण कर लेते हैं । इसमें उन्हें जरासा भी संकोच नहीं होता। इसका कारण रसना इन्द्रियमें आसक्तिके सिवा और कुछ भी नहीं है।
इसी प्रकार ऊनामें भी एक खास स्मरणीय बात हुई थी। सूरिजी जब ऊनामें थे तब उनकी कमरमें एक फोड़ा हुआ था। वे समझते थे कि जब पापका उदय होता है तब रोगसे भरे हुए इस शरीरमेंसे कोई न कोई रोग बाहर निकलताही है। इस लिए रोगको शान्तिके साथ सहलेना ही मनुष्यका काम है । हाय ! हाय ! करनेसे
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