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सूरीश्वर और सम्राट् । एक और आत्मीयपुरुषोंका अभाव और दूसरी तरफ पुत्रका विद्रोह; ऐसी स्थितिमें अकबरका धैर्य छूट जाय और उसके हाथ पैर ढीले पड़जायँ तो इसमें आश्चर्यकी कौनसी बात है ! उस समय सुप्रसिद्ध राजा बीरबल भी न रहा था कि जो हास्यरसका फव्वारा छोड़कर
१ राजा बीरबल ब्रह्मभट्ट था । उसका नाम महेशदास था । प्रारंभमें उसकी स्थिति बहुत ही खराब थी; परन्तु बुद्धि बहुत प्रबल थी। बदाउनीके कथनानुसार,-अकबर जब गद्दी पर बैठा तब वह कालपीसे आकर दर्बारमें दाखिल हुआ था । वहाँ वह अपनी प्रतिभासे सम्राट्को अपना महरवान बना सका था । उसकी हिन्दी कविताओंकी प्रशंसा होने लगी । सम्राट्ने प्रसन्न होकर उसे ' कविराय' की पदवी दी और हमेशाके लिए अपने पास रख लिया।
ई. सन् १५७३ में उसे 'राजा बीरबल ' की पदवी और नगरकोट जागीर में मिला । ई. सन् १५८९ में जैनखाँ कोका बाजोड और स्वादके यूसफजई लोगोंके साथ युद्ध कर रहा था। उस समय उसने और मदद मांगी थी । इससे हकीम अबुल्फ़तह और बीरबल सहायताके लिए भेजे गये थे। कहाजाता है कि, अकबरने बीरबल और अबुल्फज़ल दोनोंके नामकी चिट्टियाँ डाली थीं। चिट्ठी बीरबलके नामकी निकली । इसलिए इच्छा न होते हुए भी बीरबलको सम्राट्ने रवाना किया । इसी लडाइमें बीरबल ८००० आदमियों के साथ मारा गया था ।
बीरबलकी मृत्युके बाद यह बात भी फैली थी कि, वह अबतक जिन्दा है और नगरकोटकी घाटियोंमें भटकता फिरता है । अकबरने यह सोचकर इस बातको सही माना कि लड़ाई में हारनेके कारण वह यहाँ आते शर्माता होगा अथवा वह संसारसे पहले ही विरक्त रहता था, इसलिए, अब वह योगियोंके साथ हो लिया होगा । अकबरने एक ' एहदी' को भेजकर नगरकोटकी घाटियोंमें बीरबलकी खोज कराई। मगर वह कहीं न मिला। इससे यह स्थिर होगया कि, बीरबल मारा गया है।
बीरबल अपनी स्वाधीनता, संगीतविद्या और कवित्व शक्ति के लिए विशेष प्रसिद्ध हुआ था। उसकी कविताएँ और उसके लतीफे लोगोंको आज भी याद हैं । विशेषके लिए देखो,-' आइन-ई-अकबरी' के प्रथम भागका अंग्रेजी अनुबाद, पृ. ४०४-४०५ तथा ' दारे भकबले' पृ० २९५-३१०.
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