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जीवनकी सार्थकता। २८५ चाहिए कि, बादशाहने जितनी अमारीघोषणाएँ कराई-जीवहिंसाएँ बंद करवाई और गुजरातमें प्रचलित जजिया नामका जुल्मी कर बंद कराया इन सबका श्रेय शान्तिचंद्रजीको है और शत्रुनयादिके फर्मान लेनेका यश भानुचंद्रजीको है। क्योंकि ये कार्य उन्हींके उपदेशसे
कितना स्पष्ट कथन ! कितनी लघुता! कितनी निरभिमानता !! सचमुच ही उत्तम पुरुषोंकी उत्तमता ऐसे ही गुणोंमें समाई हुई है।
__ सूरिजीम गुरुभक्तिका गुण भी प्रशंसनीय था । गुरुकी आज्ञाको वे परमात्माकी आज्ञा समझते थे। एक बार उनके गुरु विजयदानसरिने उन्हें किसी गावसे एक पत्र लिखा । उसमें उन्होंने लिखा था कि, इस पत्रको पढ़ते ही जैसे हो सके वैसे यहाँ आओ।
पत्र मिलते ही मूरिनी खाना हो गये । उस दिन दो दिनके उपवासका पारणा करना था। पारणाकर विहार करनेकी श्रावकोंने बहुत विनती की; परन्तु उन्होंने किसीकी बात नहीं मानी। वे यह कह रवाना हो गये कि,-गुरुदेवकी आज्ञा तत्काल ही रवाना होनेकी है, इसलिए मुझे रवाना होना ही चाहिए । बहुत जल्दी, सहसा, गुरुके पास जा पहुँचे । गुरुनीको बड़ा आश्चर्य हुआ कि,-वे इतने जल्दी कैसे जा पहुँचे । पूछनेपर उन्होंने उत्तर दिया कि, जब आपकी आज्ञा तत्काल ही आनेकी थी तब एक क्षणके लिए भी मैं कहीं कैसे ठहर सकता था ? विजयदानसूरि अपने शिष्यकी ऐसी भक्ति देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए । पीछेसे जब उन्हें यह मालूम हुआ कि; हीरविजयमूरि दो दिनके उपवासका पारणा करने जितनी देर भी नहीं ठहरे, तबतो उनकी प्रसन्नताका कोई ठिकाना न रहा। गुरुकी आज्ञापालन करनेमें कितनी उत्सुकता ! कितनी तत्परता ! ऐसे शिष्य
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