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सूरीश्वर और सम्राट । mmmmmmmm प्रवृत्ति बहुतही जरूरी है । आध्यात्मिक बल लाखों मनुष्यों के बलोंसे भी करोड गुणा अधिक है । जिस कामको लाखों मनुष्य नहीं कर सकते हैं उस कामको आध्यात्मिक बलवाला अकेला कर सकता है।"
मूरिजीके वचन सुनकर साधु स्तब्ध होगये; एक शब्द भी वे न बोल सके । उनको यह सोचकर बड़ा आश्चर्य होने लगा कि;-जगत्में इतनी प्रतिष्ठा और पूजा प्राप्त करके भी सूरिनी इतने वैरागी हैं ! साधुओंको सँभालनेमें, लोगोंको उपदेश देने में और समाजहितके कामोंमें सतत परिश्रम करनेपर भी बाह्य प्रवृत्तिसे वे इतने निर्लेप हैं !
यहि अध्यात्म है। मनको वशमें करनेकी इच्छासे-आत्मा को जीतनेके इरादेसे जो अध्यात्म-प्रवृत्ति करते हैं वे आध्यात्मिक प्रवृत्तिका आडंबर नहीं करते । जो सच्चे अध्यात्म-प्रिय हैं वे कभी भी आडंबर प्रिय नहीं होते । जहाँ आडंबर प्रियता है वहाँ सच्चा अध्यात्म नहीं रहता। आध्यात्मिकोंमें इन्द्रियदमन, शारीरिक मूर्छाका त्याग
और वैराग्य ये गुण होनेही चाहिएँ । इन गुणोंके बिना अध्यात्मज्ञानमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती। वर्तमानमें कुछ शुष्क आध्यात्मिक अध्यात्मविद् होनेका दावा करते फिरते हैं; मगर देखने जायगे तो किसीमें उपर्युक्त गुणों से थोड़ासा अंश भी नहीं मिलेगा। ऐसोंको अध्यात्मिविद् कहना या मानना ठगोंको उत्साहित करना है।
हीरविजयसूरिके जीवनकी सार्थकताके संबंधमें अब विशेष कुछ कहना नहीं हैं । आध्यात्मिक प्रवृत्तिसे और उपदेशादि बाह्यप्रवृत्तिसे दोनों तरहसे उनका जीवन जनताके लिए आशीर्वादरूप था । कर्मोंको क्षय करनेके लिए उन्होंने तपस्या भी बहुत की थी। संक्षेपमें यह है कि, जैसे वे एक उपदेशक थे वैसे ही तपस्वी भी थे । स्वभावतः
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