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सूरीश्वर और सम्राट् । अकबरके पास एक जेताशाह नामका नागौरी गृहस्थ रहता था। बादशाहकी उस पर पूर्ण कृपा थी । जब हीरविजयसूरि बादशाहके पाप्तसे रवाना होने लगे तब जेताने प्रार्थनाकी कि, यदि आप दो तीन महीने तक यहाँ और ठहरें तो मैं आपके पास दीक्षा लें।"
सूरिजीके लिए यह बात विचारणीय थी। जेताशाहके तुल्य बादशाहके कृपापात्र और प्रतिष्ठित. मनुष्यको दीक्षा देनेका लाभ कुछ कम न था; मगर गुजरातकी ओर प्रयाण करना भी जरूरी था । सूरिजी बड़े विचारमें पड़े। थानसिंहने जेताशाहसे कहाः-" जब तक बादशाहकी आज्ञा न मिलेगी तुम दीक्षा नहीं ले सकोगे।" तत्पश्चात् उसने ( थानसिंहने ) और मानुकल्याणने बादशाहसे जाकर अर्ज की,-" जैतानागोरी हीरविजयसूरिजीके पास दीक्षा लेना चाहता है । मगर आपकी आज्ञाके विना यह काम नहीं होगा।" - बादशाहने जैताशाहको बुलाया और कहा:-" तू साधु क्यों होना चाहता है ? अगर तुझे किसी तरहका दुःख हो तो मैं उसको मिटानेके लिए तैयार हूँ । गाँव, जागीर, धन-दौलत जो कुछ चाहिए मांग। मैं दूंगा।"
जैताशाहने उत्तर दिया:--" आपकी कृपासे मेरे पास सब कुछ है । मुझे किसी गाँव, जागीर या धन-दौलतकी चाह नहीं है। मेरे स्त्रीपुत्र भी नहीं हैं। मैं आत्मकल्याण करना चाहता हूँ। इसलिए साधु बननेकी इच्छा है । कृपा करके प्रसन्नतापूर्वक मुझे साधु होनेकी आज्ञा दीजिए।"
जैताशाहको अपने विचारोंमें दृढ देखकर बादशाहने उसको दीक्षा लेनेकी आज्ञा दी । तब थानसिंहने कहा:-" सूरिजी महाराज तो चले जाते हैं फिर इसको दीक्षा कौन देगा !
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