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शिष्य परिवार |
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बुलाया और पंडितोंके साथ वाद करनेके लिए कहा। राजा मध्यस्थ बना । वाद प्रारंभ हुआ । ब्राह्मण पंडितोंने हरि ( ईश्वर ) ब्राह्मण और शैवधर्म इन तीन तत्त्वोंकी स्थापना की । अर्थात् -" हरि ईश्वर है । वह जगत्का कर्ता, हर्ता व पालनकर्ता है । ब्राह्मण सच्चे गुरु हैं और शैवधर्म हो सच्चा धर्म है । " कल्याणविजयजीने इसका उत्तर देते हुए कहा : " जो ईश्वर है वह कदापि जगत्का कर्ता, हर्ता या पालक नहीं हो सकता है । क्योंकि वह ईश्वर उसी समय बनता है जब वह समस्त कर्मों को नष्ट कर संसार से सर्वथा मुक्त हो जाता है । संसार - मुक्त ईश्वरको ऐसी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है कि, जिससे वह दुनियाके प्रपंच में पड़े । और यह एक कुदरती बात है कि मतलब बिना किसी की भी प्रवृत्ति, किसी कार्यमें, नहीं होती है। कहा है कि
प्रयोजनमनुद्दिश्य मंदोऽपि न प्रवर्तते । '
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अतएव ईश्वर कर्ता, हर्ता या पालक कदापि नहीं गिना जा सकता है । यह भी नहीं कहा जा सकता है कि ईश्वर अपनी इच्छासे सृष्टिको बनाता है । क्योंकि इच्छा उसीको होती है जो राग-द्वेषयुक्त होता है । रागद्वेषका परिणाम ही इच्छा है । और ईश्वर तो वही माना जाता है कि, जो रागद्वेषसे सर्वथा मुक्त होता है । अगर ईश्वर भी रागद्वेषयुक्त मान लिया जायगा तो फिर उसमें और हममें अन्तर ही क्या रह जायगा ? दूसरी बात यह है कि, जगत्में जितनी वस्तुएँ हैं उन सबको शरीरधारीने बनाया है । अगर यह मान लिया जा, सृष्टि ईश्वरने बनाई है तो, ईश्वर शरीरी प्रमाणित होगा । 'जब ईश्वर शरीरी होगा तो वह कर्ममलसे लिप्त माना जायगा । मगर ईश्वर तो कमका सर्वथा अभाव है इसलिए यह युक्ति भी ठीक नहीं
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