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शेष पर्यटन।
ર૭૬ सं० १६५० में ) सिद्धाचलजी पहाड़ पर किस जगह क्या था और खास खास स्थानोंमें कितनी कितनी मूर्तियाँ थीं।
सुरिजीके इस यात्रा-वर्णनसे यह बात भी सहनही ध्यानमें आ जाती है कि, जमाना कितनी तेजीके साथ बदलता रहता है। कहाँ भाव-भक्ति सहित अपने सारे जीवन में सिर्फ एक दो बार यात्रा करके जीवनको सफल बनाने, और समझनेवाले पहिलेके यात्री ! और कहाँ गर्मीकी मोसिममें केवल हवा खानेके लिए अथवा व्यापार-रोजगारके बोझेसे व्याकुल होकर आराम लेनेके लिए जाने वाले वर्तमानके यात्री ! ( इस कथनसे किसीको यह नहीं समझना चाहिए कि भक्तिभावके साथ यात्रार्थ जानेवाले अब हैं ही नहीं । अब भी अनेक भक्तिपुरस्सर यात्रार्थ जाने वाले यात्री हैं।) कहाँ इतने विशाल तीर्थस्थानमें अंगुलियों पर गिनने योग्य मूर्तियाँ और कहाँ आजकी हजारों मूर्तियाँ ! कहाँ तीर्थयात्र करनेके बाद सत्य, ब्रह्मचर्य, अनीति-त्याग, इच्छा निरोध आदिकी भावनाएँ ओर कहाँ आज अनेक बार तीर्थयात्रा करने पर भी इन गुणोंकी और प्रवृत्त होनेकी उपेक्षा ! कहाँ तीर्थस्थानोंमें वह शान्तिका साम्राज्य और कहाँ अज्ञानताके कारण चारों तरफ बढ़ा हुआ आजका अज्ञानतापूर्ण आडंबर ! कहाँ तीर्थस्थानों और देवमंदिरोंकी रक्षाके लिए लोगोंकी आन्तरिक भावना और स्थिरप्रवृत्ति और कहाँ उनकी रक्षाके बहाने चलाये जाने वाले पक्षपातपूर्ण राजप्तीठाटके कारखाने ! ये बातें क्या बताती हैं ? जमानेका परिवर्तन या और कुछ ?
उस समय जिन लोगोंको तीर्थस्थानों में जानेका अवसर मिलता था वे, अपना अहोभाग्य समझते थे । तीर्थोकी पवित्र भूमिका स्पर्श करते ही वे अपने आपको कृतकृत्य मानने लगते थे । जब तक वे तीर्थस्थानोंमें रहते थे तब तक क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायोंको
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