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दीक्षादान |
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महान कार्य हुए हैं, तब तब उसमें मुख्यता साधुओंकी ही रही है । यानी साधुओंके उपदेशसे ही महान् कार्य हुए हैं । देश - देशान्तरोमें घूम घूम कर साधु ही लोगोंके हृदयोंमें धर्मकी जागृति किया करते हैं। राजसभाओं में भी साधु ही प्रवेश करके, धर्मबीजबोनेका प्रयत्न करते हैं। ऐसे साधु वृक्षोंसे या आकाशसे नहीं उतरते । गृहस्थोंमेंसे ही ऐसे व्यक्ति निकलते हैं और वे साधु बनकर शासन की उन्नति करते हैं। जब वस्तुस्थिति ऐसी है तब जो गृहस्थ अपने को सुशिक्षित समझते हैं, और प्रायः इस तरहके आक्षेप करके - कि, 'साधु कुछ भी धर्महितका कार्य नहीं करते हैं; श्रावकोंको उचित उपदेश नहीं देते हैं; अपनेको शासनहितैषी होनेका दावा करते हैं वे साधुत्व ग्रहण करके क्यों नहीं समाज या धर्मकी उन्नतिके कार्यमें लगते हैं? क्यों नहीं वे स्वयं साधु बन कर आधुनिक साधुओंके लिए आदर्श बनते हैं ? यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है कि, जमाना काम करके बतानेका है, बातें बनानेका नहीं । करना कुछ नहीं और बड़ी बड़ी बातें बनाना या दूसरों पर आक्षेप करना, केवल धृष्टता है । लाखों खंडी बोलनेवालेकी अपेक्षा पैसे भर कार्य करनेवालेका प्रभाव विशेष होता है । इस नियमको हमेशा याद रखना चाहिए । यद्यपि हम यह मानते हैं कि, वर्तमान साधुओं द्वारा जितना कार्य हो रहा है उतनेहीमें हमें सन्तोष करके बैठ नहीं जाना चाहिए। वर्तमान समयके अनुसार कार्य करनेवाले तेजस्वी साधुओंकी विशेष आवश्यकता है । इस बातको हम मानते हैं । कारण शास्त्रकार कहते हैं कि, ' जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा । ' जो कार्य करने में वीरता दिखाते हैं वे ही धर्म भी वीरता के साथ पाल सकते हैं । इसलिए शासनोन्नतिकी आशाको यदि विशेष फलवती करना हो तो ऐसे योग्य साधु पैदा करने चाहिए । साधुवर्गको भी इस विषय पर विचार करना चाहिए ।
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