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सूरीश्वर और सम्राट् ।
मनुष्य स्व-पर- उपकारका साधन करनेमें तत्पर नहीं रहता है, विषयवासनाओं में लिप्त हो जाता है, मोहमूर्च्छासे मूच्छित बनजाता है । उसकी स्थिति धोबीके गधेकीसी हो जाती है। वह आप भी डूबता है और दूसरी भी अनेक आत्माओंको अपने साथमें डुबोता है । मगर ऐसी स्थिति उसी मनुष्यकी होती है जिसका दीक्षाका यह उद्देश्य होता है,
मूँड मुँडाये तीन गुण, मिटे सीसकी खाज । खानेको लड्डु मिलें, लोक कर्हे महाराज ॥
मगर जो ' सानोति स्व-परकार्याणीति साधुः । ' अथवा ' यतते इन्द्रियाणीति यतिः * इन वाक्योंको जो अपने हृदयपट पर अंकित कर रखते हैं, उनकी स्थिति कभी ऐसी नहीं होती । इसीलिए कहा गया है कि, मनुष्य अपने लक्ष्यबिंदुको न चूके ।
इसी प्रकार दीक्षादान करनेवालेको चाहिए कि, वह अपनी उदार भावनाको हमेशा स्थिर रक्खे | यह कहने की तो कोई आवश्यकता नहीं दिखती कि, दीक्षा लेनेवालेकी अपेक्षा देनेवाले पर उत्तर दायित्व विशेष रहता है । उसको हमेशा इस बातका प्रयत्न करना पड़ता है कि, दीक्षालेनेवाला जगत्का कल्याणकर्ता कैसे हो ? विषयवासनाओंसे उसका चित्त कैसे हटे ! उसका जीवन आदर्श कैसे बने ? आदि । इस प्रकार सचेष्ट वही गुरु-दीक्षा देनेवाला - रह सकता है कि, जो संमारके आरंभ समारंभ मस्त और विषय वासना तथा क्रोधादि कषार्थोंसे तृप्त जीवको, दया और शासनहितकी भावनासे, दीक्षा देता है । मगर जो सिर्फ बहुतसे शिष्यों के गुरु कहलाने के लोभसे
+ जो स्व-पर कार्यों की साधना करता है वह साधु होता है । * जो इन्द्रियोंको वशमें रखता है, वह ' यति ' होता है ।
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