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दीक्षादान। उसका कृपापात्र अनुचर थानसिंह रामजी नामक जैनगृहस्थ भी था । उसके प्रभावसे शाही बाना पल्टन आदि भी इस उत्सवके लिए मिले थे। उससे उत्सवका और जैनोंका गौरव बढ़ गया था।
इस प्रकार बड़ी धूमधामसे मेघजी* ऋषिने लौं कामतका त्यागकर हीरविजयसरिजीके पास संवत् १६२८ में दीक्षा ली। सूरिजीने मेधनीका नाम उद्योतविजय रक्खा ।
मेघजीके समान एक प्रभावशाली साधु अपने मतको छोड़कर शुद्ध मार्ग पर आया, उसके तीस+ शिष्य-अनुयायी भी उसके
गुजरात छोड़ कर चला गया था । लगभग पांच महीने तक वह गुजरातमें रहा था। (देखो. अकबरनामा, ३ रा भाग, बेवरिज कृत अंग्रेजी अनुवाद, पृ० ११ से ४८ तक) उसी समय मेघजीकी दीक्षाका प्रसंग भी आया था ।
x ऋषभदास कविके कथनसे मालूम होता है कि, मेघजी गृहस्थावस्थामें प्राग्वंशी था ।
+ मेघजीने कितने साधुओंके साथ सूरिजीसे पुनः दीक्षा ली, इस विषयमें लेखकोंके भिन्न भिन्न मत हैं । ' हीरसौभाग्य ' काव्यके नवमें सर्गके ११५ वें श्लोकमें तीस आदमियोंके साथ दीक्षा लेना लिखा है--विनेयैविंशता समम्' ___ इसी प्रकार कवि ऋषभदास भी हीरविजयसूरिरासमें तीसके साथ दीक्षा लेना लिखता है,-'साथई साथ लिओ नर त्रीश.
'विजयप्रशस्ति ' काव्यके भाठवें सर्गके नववे श्लोक की टोकामें लिखा है कि, दीक्षा सत्ताईसने ली थी- सप्तविंशतिसंख्यैः परीतः
सन्
गुणविजयजीके शिष्य संघविजयजीने वि. सं. १६७९ के मिगसर सुद ५ के दिन बनाये हुए · अमरसेन-वयरसेन ' आख्यानमें लिखा है कि, उन्होंने अठाईस ऋषियोंके साथ आकर प्रसन्नता पूर्वक हीरविजयसूरिको वंदना की । ( 'अठ्ठावीस ऋषिस्युं परवर्या, आवी वंदइ मनकोडि' ९७) इन्हीं संघविजयजीने 'सिंहासनबत्तीसी में भी अठाईसके साथ ही दीक्षा लेनेका उल्लेख किया है । इसलिए यह स्थिर नहीं किया जा सकता है
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