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सूबेदारों पर प्रभाव। . १८५ " महाराज ! ईश्वर रूपी है या अरूपी ?" " ईश्वर अरूपी है।" " ईश्वर यदि अरूपी है तो उसकी मूर्ति क्यों बनाई जाती
" मूर्ति ईश्वरका स्मरण करानेमें कारण होती है । अर्थात् मूर्तिको देखनेसे जिसकी वह मूर्ति होती है वह व्यक्ति याद आती है । जैसे कि किसीकी तसबीर देखनेसे वह व्यक्ति याद आता है। अथवा, जैसे नाम नामवाले की याद दिलाता है, वैसे ही मूर्ति मूर्तिवालेका-जिसकी वह मूर्ति होती है उसका-स्मरण करा देती है। जो मनुष्य कहते हैं कि, हम मूर्तिको नहीं मानते हैं, वे सचमुच ही बहुत बड़ी भूल करते हैं । संसारमें ध्याता, ध्यान और ध्येय इस त्रिपुटीको माने विना किसी भी आदमीका कार्य नहीं चलता । कारण ध्यान तब तक नहीं होता है जबतक मन किसी एक पदार्थ पर नहीं लगाया जाता है । दुनियामें अमूर्तक पदार्थों का ज्ञान हमें मूर्तिहीसे होता है । आप मुझको साधु मानते हैं । कैसे ? सिर्फ मेरे वेषसे । अर्थात् मैं साधु हूँ इसबातका ज्ञान करानेमें यदि कोई बात कारणभूत है तो वह मेरा वेष ही है । ' यह हिन्दु है । ' 'यह मुसलमान है।' ऐसा ज्ञान हमें कैसे होता है ? सिर्फ वेषसे । इस वेषहीका नाम मूर्ति है । आप और हम सभी अपने शास्त्रोंको देखकर ही कहते हैं कि, यह खुदाका कलाम है, यह भगवानकी वाणी है । खुदाके वचन तो जब वे जबानसे निकले थे तभी आकाशमें उड़ गये थे, फिर भी हम कहते हैं कि ये खुदाके शब्द हैं । सो कैसे ? सिर्फ यही जवाब देना पड़ेगा कि यह खुदाके शब्दोंकी मति है । अभिप्राय यह है कि, मूर्तिके विना किसीका भी काम नहीं चलता । जो मूर्तिको नहीं मानने का दावा करते हैं वे भी प्रकारान्सरसे मूर्तिको मानते तो हैं हीं।"
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