________________
सूरीश्वर और सम्राट् ।
चातुर्मास पूर्ण होने पर सूरिजी ' सौरीपुर ' की यात्रा करके पुनः आगरे आये । वहाँ कई प्रतिष्ठादि कार्य कराकर कुछ दिन बाद फतेहपुर सीकरी ' गये । इसबार सूरिजी बादशाह के साथ कई वार मिले थे ।
"
१२४
यह तो कहनेकी अब आवश्यकता नहीं है कि, अबुल्फ़ज़ल एक विद्वान् मनुष्य था । इसको तत्त्वचर्चा करनेमें जितना आनंद आता था उतना दूसरी किसी भी बातमें नहीं आता था । और तो और धर्मचर्चा छोड़ कर खानेपीनेके लिए जाना भी उसे बुरा लगता था । वह धर्मचर्चा जिज्ञासुकी तरह करता था । अपनी मान्यता दूसरेको मनानेके लिए वितंडावादी बनकर नहीं । इसीलिए समय समय पर वह हीरविजयसूरि के साथ धर्मचर्चा करता था । सूरिजीको भी उसके साथ बातचीत करनेमें बड़ी प्रसन्नता होती थी । क्योंकि अबुल्फज़ल जैसे जिज्ञासु था वैसे ही बुद्धिमान् भी था । इसकी बुद्धि तत्काल ही बातकी तेह तक पहुँच जाती थी । कठिन से कठिन विषयको भी वह सहनही में समझ जाता था । सचमुच ही विद्वानको विद्वान् के साथ वार्तालाप करनेमें बड़ा आनंद होता है ।
एकबार अबुल्फ़ज़लके महलमें वह और सूरिजी तत्त्वचर्चा कर रहे थे । अकस्मात् बादशाह वहाँ चला गया । अबुल्फज़लने उठ कर बादशाहको अभिवादन किया । बादशाह उचित आसन पर बैठा । अबुल्फ़ज़लने सूरिजीकी विद्वत्ताकी भूरि भूरि प्रशंसा की । प्रशंसा सुनकर बादशाहके अन्तःकरणमें अज्ञात प्रेरणा हुई कि, जो कुछ सूरिजी माँगें वह उन्हें प्रसन्न करनेके लिए देना चाहिए । उसने सूरिजी से प्रार्थनाकी, "महाराज ! आप अपना अमूल्य समय खर्च कर हमको उपदेश करनेका जो उपकार करते हैं उसका कोई बदला नहीं हो सकता है । तो भी मेरे कल्याणार्थ आप जो कुछ काम मुझे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org