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सूरीश्वर और सम्राट् ।
तब उन्होंने कहा आवश्यकता नहीं
एक बार मूल नक्षत्र में बादशाहके पुत्र शेखूजीके घर पुत्री पैदा हुई । ज्योतिषियोंने कहा कि, यदि यह लड़की जिंदा रहेगी तो बहुत बड़ा उत्पात होगा । इसलिए इसको पानी में बहा दो । जब शेखूने भानुचंद्रजी से इस विषय में सलाह ली कि, ऐसा करके बाल - हत्याका पाप करनेकी कोई है । ग्रह - शान्तिके लिए अष्टोत्तरीस्नात्र पढ़ाना चाहिए । बादशाह और शेखू दोनों को यह बात पसंद आई। उन्होंने ज्योतिषियोंके कथनानुसार न कर भानुचंद्रजीके कथनानुसार अष्टोत्तरीस्नात्र पढ़ानेका कर्मचंद्रजीको हुक्म दिया । बड़े उत्सव के साथ सुपार्श्वनाथका अष्टो तरीस्नात्र पढ़ाया गया । लगभग एक लाख रुपये खर्च हुए । श्रीमानसिंहजीने ( खरतर गच्छीय श्रीजिनसिंहरिने ) यह स्नान पढ़ाया था। इस अपूर्व उत्सवमें बादशाह और शेखूने भी भाग लिया । इस स्नानवाले दिन तमाम श्रावकश्राविकाओंने आंबिलकी तपस्या की थी । ऐसे पवित्र मांगलिक कार्यसे बादशाह और शेखूका विघ्न दूर हुआ । जिनशासनकी भी खूब प्रभावना हुई ।
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ऐसे उत्तम कार्य से भानुचंद्रजीकी चारों तरफ खूब प्रशंसा हुई । एक बार बादशाहने श्रावकोंसे पूछा:- " भानुचंद्रजीको कोई पदवी है या नहीं ? है तो कौन सी है ? " श्रावकोंने उत्तर दिया:“ ‘पंन्यास' की पदवी है । " तब बादशाहने हीरविजयसूरिको पत्र लिखा और उसमें भानुचंद्रजीको ' उपाध्याय ' की पदवी देनेके लिए अनुरोध किया । सूरिजीने वासक्षेप मंत्र कर बादशाह के पास भेजा । वासक्षेप आनेपर बड़ी धूमधाम के साथ भानुचंद्रजीको ' उपा ध्याय ' की पदवी दी गई। उस समय शेख अबुल्फज़लने पचीस घोड़े और दशहजार रुपयेका दान किया था । तदुपरान्त संघने मी बहुतसा दान किया था । "
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