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विशेष कार्यसिद्धि ।
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मैं आपको नहीं भूला । समय समय पर आप मुझे कोई न कोई सेवाकार्य अवश्यमेव बताते रहें। इससे मैं समझँगा कि, मुझ पर गुरुजीकी कृपा अब भी वैसी ही है; और यह समझ मुझे बहुत आनंददायक होगी। आपको स्मरण होगा कि, रवाना होते समय आपने मुझे विजयसेनसुरिको यहाँ भेजनेका वचन दिया था । आशा है आप उन्हें यहाँ भेजकर मुझे विशेष उपकृत करेंगे । "
उस समय सूरिजी राधनपुर में थे । बादशाहका पत्र पढ़कर सूरिजी बड़े विचारमें पड़े । अपनी वृद्धावस्थामें विजयसेनसूरिको अपनेसे जुदा करना - लंबी मुसाफिरीके लिए रवाना करनाउन्हें अच्छा नहीं लगता था, साथ ही बादशाहको जो वचन दिया था उसको तोड़ने का भी साहस नहीं होता था । अन्तमें उन्होंने विजयसेनरिको भेजना ही स्थिर किया। उन्होंने भी गुरुकी आज्ञाको मस्तक पर चढ़ाकर वि० सं० १६४९ मिगसर सुदी के दिन प्रयाण किया ।
वे पाटन, सिद्धपुर, मालवण, सरोत्तर, रोह, झुंडयला, कासदा, आबू, सीरोही, सादड़ी, राणपुर, नाडलाई, बांता, बगड़ी, जयतारण, मेडता, भरूंदा, नारायणा, झाक, सांगानेर, वैराट, बेरोन, रेवाड़ी, विक्रमपुर, झझर, महिमनगर और समाना होते हुए, लाहोर पहुँचे । लाहौर पहुँचनेके पहिले जब वे लुधियाने के पास पहुँचे, तब फैजी उनकी अगवानी के लिए आया था । नंदिविजयजीने अष्टावधान सिद्ध करके बताया। फैजी इससे प्रसन्न हुआ । उसने बादशाह के पास जाकर उनकी बहुत प्रशंसा की । विजयसेन सूरि जब लाहोरसे पाँच कोश दूर रहे तब भानुचंद्रजी आदि उनके सामने आये । लाहोर में प्रवेश करने के पहिले उन्होंने
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