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विशेष कार्य सिद्धि। विजयसेनसूरिने थोड़े ही समयमें बादशाह पर अच्छा प्रभाव डाला था। इससे उनके लिए बादशाहके हृदयमें पूज्यभाव बढ़ गया। मगर जैनधर्मके कुछ द्वेषी मनुष्योंके लिए यह बात, असह्य हो गई।
भारतवर्षकी अवनतिका कारण द्वेषभाव बताया जाता है । वह मिथ्या नहीं है । जबसे इस ईर्ष्यावृत्तिने भारतमें प्रवेश किया है तभीसे देश प्रतिदिन नीचे गिरता जा रहा है। कइयोंके तो आपसमें नित्यवरही हो गया है। ऐसे लोगोंमें ' यतियों' (साधुओं) 'ब्राह्मणों की गिनती पहिले की जाती है । इसी लिए वैयाकरणोंने 'नित्यवरस्य ' इस समास सूत्रमें 'अहिनकुलम् ' (सर्प और नकुल ) आदि नित्य वैरवालोंके उदाहरणोंके साथ ' यतिब्राह्मणम् । उदाहरण भी दिया है । यद्यपि यह प्रसन्नताकी बात है कि, आज इस जीतेजागते वैज्ञानिक युगमें धीरे धीरे इस वैरका नाश होता जारहा है और समयको पहिचाननेवाले यति ( साधु ) और ब्राह्मण आपसमें प्रेमसे रहने लगे हैं । मगर हम जिस समयकी बात कह रहे हैं उस समय ' यतिब्राह्मणम् ' का उदाहरण विशेष रूपसे चरितार्थ होता था, इतिहासकी कई घटनाएँ इस बातको प्रमाणित करती हैं।
विजयसेनसूरि लाहोरमें जब अकबरके पास थे उस समय भी एक ऐसी ही बात हो गई थी। कहा जाता है कि, जब अकबर विजयसेनसृरिका बहुत ज्यादा सम्मान करने लगा और बार बार उनका उपदेश सुनने लगा। वहाँके जैन बड़े बड़े उत्सव करते उनमें भी बादशाह सहायता देने लगा, तब कई असहनशील ब्राह्मणोंने मौका देखकर बादशाहके हृदयमें यह बात जमा दी कि,
जैनलोग जब परमकृपालु परमात्माहीको नहीं मानते हैं तब उनका मत फिर किस कार्यका है ? जो लोग ईश्वरको नहीं मानते हैं उनकी सारी क्रियाएँ निकम्मी हैं।"
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