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दरीवर और लबाद। के साधुधर्मकी परीक्षा करनेके लिए उन्हें पहिले तो बहुत धनसम्पत्तिका लोभ दिखाया; जब वे लुब्ध न हुए तब उन्हें कत्ल करादेने की धमकी दी, परंतु सिद्धिचंद्रजी अपने धर्ममें दृढ रहे । उन्होंने लोम और धमकीका उत्तर इन शब्दोंमें दियाथा:--" इस तुच्छ लक्ष्मीका और सुख सामग्रियोंका मुझे क्या लोभ दिखाते हैं। अगर आप सारा राज्य देनेको तैयार होंगे तो मी मैं लेनेको तैयार न होऊँगा । जिसको तुच्छ, हेय समझकर छोड़ दिया है उसे पुनः ग्रहण करना थूकेको निगलना है । इन्सान ऐसा नहीं कर सकता । और मौत ? मौतका डर मुझे अपने चारित्रसे नहीं डिगा सकता । आज या दश दिन बाद नष्ट होनेवाला यह शरीर मुझे धर्मसे बढ़ कर प्यारा नहीं है।"
सिद्धिंचद्रजीके कथनसे बादशाहको बहुत आनंद हुआ। उसने भक्तिपूर्वक उनकी चरणवंदना की।
भानुचंद्रजी और सिद्धिचंद्रजी प्रायः बादशाहके सामने विजयसेनसूरिकी प्रशंसा करते रहते थे। बादशाहको भी यह बात याद थी कि हीरविजयसरिने अपने प्रधान शिष्य विजयसेनसूरिको भेजनेका वचन दिया है। एक वार बादशाह जब लाहोरमें था, तब उसके हृदयमें हीरविजयसूरिको बुलानेकी इच्छा हुई । उसने अबुल्फ़ज़लके सामने अपनी इच्छा प्रकट की। अधुल्फ़ज़लने कहा:--" हीरविजयसूरि वृद्ध हो गये हैं इस लिए उनको इस समय यहाँ तक बुलाना उचित नहीं है।" तत्पश्चात् उसने एक आमंत्रण पत्र विनयसेनसूरीको बुलानेके लिये भेजा, उसमें लिखा:
"यद्यपि आप विरागी हैं परन्तु मैं रागी हूँ। आपने संसारके सारे पदार्थोंका मोह छोड़ दिया है इसलिए संभव है कि, आपने मेरा भी मोह छोड़ दिया हो और मुझे भुला दिया हो; परन्तु महाराज !
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