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प्रतिबोध |
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कि, - ' हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमंदिरम् ' ( हाथी मार डाले तो भी जैनमंदिरमें नहीं जाना चाहिए ।) इसका सबब क्या है ? "
"
बादशाहकी बात सुनकर सूरिजी जरा हँसे और बोले:— " राजन् ! मैं क्या उत्तर दूँ? आप बुद्धिमान हैं, इसलिए स्वयमेव समझ सकते हैं। तो भी मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि - उक्त वाक्य कौनसी प्राचीन श्रुति, स्मृतिका है ? किसी शास्त्रमें यह बात नहीं है। किसी द्वेषी मनुष्यकी यह एक कल्पना मात्र है । इसका सीधा उत्तर देनेके लिए जैनलोग भी कह सकते हैं कि, 'सिंहेनाss। ताड्यमानोऽपि न गच्छेच्छेवमंदिरम् । ( सिंहने घेर लिया हो तो भी शिवमंदिरमें नहीं जाना चाहिए ) मगर इसका परिणाम क्या है ? केवल लट्ठबाजी और झगड़ा । राजन् ! भारतवर्षकी अवनतिका कारण यदि कुछ है तो सिर्फ यही है। जैनियोंको हिन्दुओंने नास्तिक बताया । हिन्दुओंको जैनियोंने मिथ्यादृष्टि कहा । मुसलमानोंने हिन्दुओंको काफिर कहा । हिन्दुओंने उन्हें म्लेच्छ बताया । इस तरह हरेक मजहबवाला दूसरेको झूठा - नास्तिक बताता है। मगर ऐसे विचार रखनेवाले लोग बहुत ही कम होंगे कि, - 'बालादपि सुभाषितं ग्राह्यम् ।' ( एक बालकका भी श्रेष्ठ वचन ग्रहण करना चाहिए | ) मनुष्य मात्रको जहाँसे अच्छी बात मिलती हो वहींसे ले लेनी चाहिए। जो ऐसा करता है वही अपने जीवन में उत्तमोत्तम गुण संग्रह कर सकता है । मगर विपरीत इसके यदि सभी एक दूसरेको नास्तिक या झूठा ठहराने के ही प्रयत्न में लगे रहेंगे तो फिर संसारमें सच्चा या आस्तिक कौन रहेगा? इसलिए एक दूसरेको झूठा या नास्तिक बतानेकी भ्रान्तिर्मे न पड़ यदि सत्य वस्तुका ही प्रकाश किया जाय तो कितना लाभ हो ? वास्तव तो नास्तिक मनुष्य वही होता है जो आत्मा,
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