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प्रतिबोध । __सूरिनीकी इस उदारता और निःस्पृहताके लिए बादशाहको अत्यधिक आनंद हुआ। इतना ही नहीं, उसने अपने समस्त दुर्वारियोंको उद्देश करके कहा:---" मैंने ऐसी निःस्पृहता रखनेवाला, सिवा हीरविजयसूरिजीके और किसीको नहीं देखा । जो अपने स्वार्थकी कोई बात नहीं करते । जब बोलते हैं तब परोपकारहीकी बात । संसारमें 'साधु, संन्यासी' 'योगी' या ' महात्मा' आदिका पद धारण करनेवाले आदमियों की कमी नहीं है । मगर वे सभी प्रायः किसी न किसी फंदमें फँसे ही रहते हैं। कई तो बड़े बड़े मठाधीश हैं । लाखोंकी उनके पास सम्पत्ति है, जिससे आनंद करते हैं। कई सूफी, शेख और कंथाधारी होते हुए भी द्रव्य और दो दो स्त्रीयोंके स्वामी होते हैं। कई ' महर '-दया रखनेकी बड़ी बड़ी बातें करते हुए भी जानवरोंको मारकर खाते नहीं हिचकिचाते हैं। कई मंत्र-तंत्रका ढोंग करके भोले लोगोंको ठगते फिरते हैं। कई ' दंडधारी । और ' दरवेश ' का रूप धारण कर अनेक प्रकारके छल कपटका विस्तार करते फिरते हैं और कई 'तापस ' नामधारी घरघरसे मांगकर अपने भोगविलासका सामान जुटाते हैं। क्या मठवासी और क्या संन्यासी,क्या गोदड़िया और क्या गिरि-पुरी, क्या नाथ और क्या नागे, प्रायः सभी क्रोधादि कषायोंको नहीं दवा सके हैं और ज्ञानहीन होनेसे अनेक प्रकारके झगड़े फिसाद फैलाते फिरते हैं। ऐसे लोग दुनिया के गुरु-धर्मगुरु कैसे माने जा सकते हैं ? जो क्रोध, मान, माया और लोभादि कषायोंसे लिप्त हों, जिनका चारित्र विषयवासनाके उपभोगसे हीन बना हुआ हो वे कैसे पूज्य हो सकते हैं ? इस संसारमें रहते हुए भी कंचन और कामिनीसे इस तरह सर्वथा दूर रहना तथा मनमें किसीभी तरहकी तृष्णा न रखना सचमुच ही महान कठिन कार्य है।"
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