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सूरीश्वर और सम्राट्। " कहइ अकबर ये मोटा चोर, मुलकर्मि बहुत पड़ावई सोर । एक खराब हजारकुं करइ, इहा भले ये जब लगि मरइ ॥"
(हीरविजयसूरिरास, पृष्ठ १३४ ) जैनकविकी यह सत्यता प्रशंसनीय है कि, जो काम अकबरने सूरिजीके अनुरोधसे नहीं किया उसके लिए भी लिख दिया कि,' नहीं किया ।
अकबरने उसके बाद पूछा:--" इसके सिवा आप और कोई बात कहिए । " सूरिजी सोच रहे थे कि, अब बादशाहको कौनसा दूसरा कार्य करनेके लिए कहना चाहिए । इतनेहीमें शान्तिचंद्रनीने मूरिजीके कानमें कहा:-" महाराज सोच क्या रहे हैं ? ऐसा परवाना लिखवाइए कि, जिससे सारे गच्छके लोग आपको माने और आपकी चरणवंदना करें ।"
___पाठक ! सूरिनीकी उदार प्रकृतिको जानते हुए भी क्या आप उनसे ऐसे कथनकी आशा कर सकते हैं ? सूरिजीके मुखकमलसे क्या ऐसी स्वार्थमिश्रित वाणी-सौरभ निकल सकती है ? क्या सूरिनी इस बातको नहीं जानते थे कि लोभ सर्वनाशकी जड़ है ? ऐसी लोभवृत्तिके वशमे होकर अपना सम्मान बढ़ानेकी बात कहनेसे क्या परिणाम होगा सो मूरिजी सोचने लगे । सूरिनी शान्तिचंद्रकी सलाहकी उपेक्षा कर कुछ कहना चाहते थे, इतनेहीमें बादशाह बोला:-" गुरुजी ! शान्तिचंद्रजीने आपसे क्या कहा ? " सूरिजीने जो बात थी वह कह दी और कहा:-" मैं हरगिन यह बात नहीं चाहता । शिष्य गुरुभक्तिके कारण जो इच्छा हो सो कहें । मेरा कोई मान करे या अपमान करे, मुझे कोई माने या न माने । मेरे लिए सब समान हैं। मेरा धर्म तो यह है कि, समस्त जीवोंको समानभावसे देखना और उनको कल्याणकारी मार्गका उपदेश देना।"
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