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प्रतिबोध ।
जनतामें ऐसी अनेक बातें फैल गई थीं। पीछेके कई जैनलेखकोंने भी पर परागत उपर्युक्त किंवदन्तियोंको सत्य मानकर, हीरविजयसूरिक विषयमें लिखते हुए, किसी न किसी, इसी प्रकारके, चमत्कारका उल्लेख किया है । मगर ये बातें ऐतिहासिकसत्यसे विरुद्ध हैं। हीरविजयसूरिने मंत्र-यंत्र या इसी तरहकी अन्य किसी विद्याद्वारा बादशाहको कभी कोई चमत्कार नहीं दिखाया था। उन्होंने तो कईबार बादशाहके अनुरोधके उत्तरमें कहा था कि, "यंत्र-मंत्र करना हमारा धर्म नहीं है । वे एक पवित्र चारित्रवाले आचार्य थे। वे अपने चारित्रके प्रभावहीसे हरेक मनुष्यके हृदयमें सद्भाव उत्पन्न कर सकते थे। उनके मुखारविंद पर ऐसी शान्ति विराजती थी कि, क्रोधीसे क्रोधी मनुष्य भी उसको देख कर शान्त हो जाता था। इस बातको हरेक जानता है कि,मनुष्योंके अन्तःकरणोंमें जैसा उत्तम प्रभाव एक पवित्र चारित्र डाल सकता है वैसा प्रभाव सैकड़ों मनुष्योंके उपदेश भी नहीं डाल सकते हैं । शुद्ध आचरण-पवित्र चारित्र-के विना जो मनुष्य उपदेश देता है उसके उपदेशको लोग हँसीमें उड़ा दिया करते हैं । सूरिजीके चारित्रबलसे हरेक तरहके आदमी उनके आगे सिर झुका देते थे; चारित्रका ही यह प्रभाव था कि, बादशाह सूरिजीके वचनोंका ब्रह्मवचनके तुल्य सत्कार करता था।
यह तो प्रसिद्ध ही है कि, हीरविजयसूरि सर्वथा त्यागी और निःस्पृह महात्मा थे। इसलिए बादशाह उनकी भक्ति करने लग गया था, तो इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है। क्योंकि अकबरमें यह एक खास गुण था कि, वह उस मनुष्यका बहुत ज्यादा सम्मान करता था जो निःस्पृही, निर्लोभी और जगत्के सारे प्राणियोंको अपने समान देखनेवाला होता था। अपने इस गुणके कारण ही अकबर हीरविजय सूरिका सम्मान करता था और उनके उपदेशानुसार कार्य करता था।
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