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प्रतिबोध ।
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सूरिजीने गंभीरतापूर्वक उत्तर दिया:-" राजन् केवल जैनसाधुओंके लिए ही नहीं बल्के तमाम धर्मोंके साधुओंके लिये यह नियम है कि, ' दृष्टिपूतं न्यसेत् पादम् [ मनुस्मृति, अ० ६ ठा श्लोक ४६ वा ] अर्थात् जहाँ चलना या बैठना हो वहाँ पहिले देख लेना चाहिए । इस जगह गालीचा बिछा हुआ है इसलिए हम नहीं देख सकते हैं कि, इसके नीचे क्या है ? इसीलिए हम इस गालीचे पर नहीं चल सकते हैं।
इस उत्तरसे बादशाह मनही मन हँसा,-ऐसे मनोहर गालीचेके नीचे जीव कहाँसे चुप्त गये होंगे ? फिर उसने सरिजीको अंदर ले जानेके लिए अपने हाथसे गालीचेका एक पल्ला हटाया । गालीचा हटाते ही बादशाहके आश्चर्यका ठिकाना न रहा । उसने देखा कि, वहाँ हजारों कीड़ियाँ फिर रही हैं। उसे अपनी भूल मालूम हुई । सूरिजीके प्रति उसकी जो श्रद्धा थी उसमें सौगुनी वृद्धि हो गई । वह बोल उठा:-" बेशक, सच्चे फकीर ऐसे ही होते हैं !" फिर उसने गालीचा वहाँसे उठवा दिया और रेशमके एक कपड़ेसे यहाँसे कीड़ीयाँ स्वयं हटा दीं । तदनन्तर सूरिनीने उस कमरेमें प्रवेश किया।
बादशाह और सरिजी अपने अपने उपयुक्त आसन पर बैठे । बादशाहने नम्रतापूर्वक धर्मोपदेश सुननेकी जिज्ञासा प्रकट की। सूरिजीने पहिले कुछ सामान्य उपदेश दिया । और संक्षेपमें देव, गुरु और धर्मका उपदेश देते हुए कहाः___"जब कोई मकान बनवाता है तब वह तीन चीजोंको-नींव, दीवार और धरनको मजबूत करवाता है। उससे मकान बनवाने वालेको
१ दृष्टिसे पवित्र धनी हुई जगह पर पैर रखना चाहिए ।
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