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प्रतिबोध । महादेव अथवा ईश्वर है । दूसरे शब्दोंमें कहें तो ईश्वर वह होता है जो जन्म, जरा और मृत्युसे रहित होता है; जिसके रूप, रस, गंध और स्पर्श नहीं होते हैं और जो अनंत सुखका उपभोग करता है।
ईश्वरका जो स्वरूप ऊपर बताया गया है उससे यह बात सहनही समझमें आजाती है कि, ईश्वरके लिए कोई कारण ऐसा बाकी नहीं रह जाता है जिससे उसको फिरसे जन्म धारण कर संसारमें आना पड़े। क्योंकि उसके सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। यह नियम है कि,'कोई भी आत्मा कर्मोंको नष्ट किये विना संसारसे मुक्त नहीं हो सकता है और जब वह मुक्त हो जाता है तो फिर संसारमें नहीं आ सकता है । ' यह जैनधर्मका अटल सिद्धान्त है । ' संसार । शब्दसे देव, मनुष्य, तिथंच और नरक ये चार गतियाँ समझनी चाहिए।"
___ इस तरह देवका संक्षेपमें स्वरूप वर्णन करनेके बाद सूरिनीने गुरुका स्वरूप बताते हुए कहा:
गुरु वे ही होते हैं जो पाँच महाव्रतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन करते हैं, भिक्षावृत्तिसे अपना जीवननिर्वाह करते हैं, जो स्वभावरूप सामायिकमें हमेशा स्थिर रहते हैं और जो लोगोंको धर्मका उपदेश देते हैं । गुरुके इन संक्षिप्त लक्षणोंका जितना विस्तृत अर्थ करना हो, हो सकता है । अर्थात् साधुके आचार-विचारों और व्यवहारोंका समावेश उपर्युक्त पाँच बातोंमें हो जाता है। गुरुमें दो बाते-जो सबसे बड़ी हैं-तो होनी ही चाहिए । वे हैं ( १) स्त्रीसंसर्गका अभाव और (२) मूर्छाका त्याग। जिसमें ये दो बातें न हो वह गुरु होने या मानने योग्य नहीं होता है। इन दो बातोंकी रक्षा करते हुए गुरुको अपने आचार-व्यवहार पालने चाहिए । गुरुके लिये और भी बातें कही गई हैं। वह अच्छे
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