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प्रतिबोध।
कर्णराज नामके एक हिन्दु गृहस्थका मकान था। उन्होंने गोचरी लाकर उसीके एक एकान्त स्थलमें आंबिल कर लिया।
इधर सूरिजी आहार-पानी करके निवृत्त हुए। उधर बादशाह भी अपने कामसे छुट्टी पाकर दर्वारमें आया । उसने दर्बारमें आते ही सूरिजी महाराजको बुलानेके लिए एक आदमी भेजा । समाचार मिलते ही सूरिजी अपने कई विद्वान् शिष्यों थानसिंह और मानुकल्याण आदि गृहस्थ श्रावकों और अबुल्फ़ज़ल सहित दर्वारमें पधारे।
कहा जाता है कि, उस समय सूरिजीके साथ सैद्धान्तिक शिरोमणि उपाध्याय श्रीविमलहर्षगणि, शतावधानी श्रीशान्तिचंद्रगणि, पंडित सहजसागरगणि, पंडित सिंहविमलगणि, ('हीरसौभाग्य काव्य के कर्ताके गुरु ) वक्तृत्व और कवित्व शक्तिमें सुनिपुण पंडित हेमविजयगणि, ('विजयप्रशस्ति आदि काव्योंके कर्ता' ) वैयाकरण चूडामणि पंडित लाभविजयगणि, और सूरिजीके प्रधान (दीवान ) गिने जानेवाले श्रीधनविजयगणि आदि तेरह साधु गये थे । आश्वर्यकी बात तो यह है, कि वह दिन भी तेरसका था और साधुओंकी संख्या भी तेरह ही थी।
बादशाहने दूरहीसे इस साधुमंडलको आते देखा। देखते ही वह अपना सिंहासन छोड़कर उठ खड़ा हुआ और अपने तीन पुत्रों-शेखूजी, पहाड़ी (मुराद ) और दानियाल-सहित उनके सम्मानार्थ उनके सामने गया । बड़े आदरके साथ सूरिजीको अपनी बठक तक ले गया। उस समय, एक तरफ अकबर, अपने तीन पुत्रों और अबुल्फजल,
१ करणराजका खास नाम रामदास कछवाह था। राजा करण उसका विरुद था। यह करणराज ५०० सेनाका स्वामी था। जो इसके विषयमें विशेष जानना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि, वे आईन-इ-अकबरीके प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादका-जो ब्लोकमनका किया हुआ है-४८३ वाँ पृष्ट देखें ।
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