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सूरीश्वर और सम्राट् ।
परम सुख या परम आनंद नहीं मिलता है। इस सुख या आनंदकी प्राप्तिहीके लिए हम साधु-फकीर हुए हैं । क्योंकि गृहस्थावस्थामें यह जीव अनेक प्रकारकी उपाधियोंसे घिरा रहता है । इस लिए वह अपनी आत्मिक उन्नतिके लिए जिन कायाको करनेकी आवश्यकता है उनको नहीं कर सकता है । इसलिए वैसे कारणोंसे दूर रहना ही उत्तम है । यह समझ कर ही हमने गृहस्थावस्थाका त्याग किया है। आत्मोद्धार करनेका यदि कोई असाधारण कारण संसारमें है तो वह धर्म ही है और इस धर्मका संग्रह साधु अवस्थामेंफकीरीहीमें भली प्रकारसे हो सकता है। इसके उपरांत हम पर मृत्युका डर भी इतना रहता है कि, जिसका कुछ ठिकाना नहीं। कोई नहीं जानता है कि, वह कब आ वायगी। इस लिए हरेकको उचित है कि, वह महात्माके इस वचनको कि--
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः ।
नित्यं संनिहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥ १॥ स्मरणमें रखे और धर्म-संचय करनेमें तत्पर रहे।
“राजन् आपके प्रश्नका उत्तर इतने ही शब्दोंमें आ जाता है। यदि इससे भी संक्षेपमें कहूँ तो इतना ही है कि, गृहस्थावस्था रह कर लोग चाहिए उस तरह धर्मका साधन नहीं कर सकते हैं
और धर्मका साधन करना बहुत जरूरी है। इसी लिए हम साधुफकीर हुए हैं।"
उपाध्यायजीके इस विवेचनसे अकररको बड़ी प्रसन्नता हुई। उनकी निर्भीकता और अस्खलित वचनधारासे बादशाहके हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा । उसे बड़ी प्रसन्नता हुई और वह मनमें सोचने लगा:-निसके शिष्य ऐसे त्यागी, विद्वान् और होशियार हैं उनके
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