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सूरीश्वर और सम्राद। ___ " महानुभावो ! मैंने अब तक आप सबके विचार सुने । जहाँ तक मैं समझता हूँ अपने विचार प्रकट करनेमें किसीका आशय खराब नहीं है। सबने लाभके ध्येयको सामने रख कर ही अपने विचार प्रकट किये हैं । अब मैं अपना विचार प्रकट करता हूँ। इस बातके विस्तृत विवेचनकी तो इस समय मैं कोई आवश्यकता नहीं देखता कि, अपने पूर्वाचार्योंने मान-अपमानकी कुछ भी परवाह न कर राज-दर्बारमें अपना पैर जमाया था और राजाओंको प्रतिबोध दिया था। इतना ही क्यों, उनसे शासनहितके बड़े बड़े कार्य भी करवाये थे। इस बातको हरेक जानता है कि, आर्य-महागिरिने सम्पति राजाको, बप्पभट्टीने आमराजको, सिद्धसेनदिवाकरने विक्रमादित्यको और कलिकाल सर्वज्ञ प्रभु श्रीहेमचंद्राचार्यने कुमारपाल राजाको -इस तरह अनेक पूर्वाचार्योंने अनेक राजाओंको-प्रतिबोध दिया था। उसीका परिणाम है कि, इस समय भी हम जैन-धर्मकी जाहो-जलाली देखते हैं । भाइयो ! यद्यपि मुझमें उन महान आचार्योंके समान शक्ति नहीं है; मैं तो केवल उन पूज्य पुरुषोंकी पद-धूलिके समान हूँ; तथापि उन पूज्य पुरुषोंके पुण्य-प्रतापसे यावद् बुद्धिबलोदयम् । इस नियमके अनुसार शासनसेवाके लिए जितना हो सके उतना प्रयत्न करनेको मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। अपने पूज्य पुरुषोंको तो राज-दर्बार में प्रवेश करते बहुतसी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी थीं; परन्तु हमें तो सम्राट् स्वयमेव बुला रहा है । इस लिए उसके आमंत्रणको अस्वीकार करना मुझे अनुचित जान पड़ता है। तुम इस बातको भली प्रकार समझते हो कि, हजारों बल्कि लाखों मनुष्योंको उपदेश देनेमें जो लाभ है उसकी अपेक्षा कई गुना लाभ एक राजाको -सम्राट्को उपदेश देनेमें है । कारण-गुरुकी कृपासे सम्राट्के हृदयमें यदि एक बात भी बैठ जाती है तो हजारों ही नहीं बरिक लाखों
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