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प्रकरण दूसरा।
सूरि-परिचय।
सारमें समय समय पर ऐसे महात्मा पुरुष उत्पन्न
होते हैं कि जो 'स्वोपकार' को अपने जीवनका का लक्ष्यबिंदु नहीं बनाते हैं, बल्कि 'परोपकार'
। हीमें अपने जीवनकी सार्थकता समझते हैं। ऋषियोंको इसका पूर्ण अनुभव हुआ था, इसीलिए उन्होंने यह कहा है कि,-" परोपकाराय सतां विभूतयः।" सज्जनोंकी-महात्माओंकी समस्त विभूति परोपकारहीके लिए होती है । इस प्रकरणमें हम जिनका परिचय कराना चाहते हैं वे भी उक्त प्रकारके परोपकारी महात्माओंमेंसे एक थे।
विक्रम संवत् १९८३ (ई. सं. १५२७) के मार्गशीर्ष शुक्ला ९ सोमवारके दिन 'पालनपुर' के ओसवाल गृहस्थ कूराशाहकी धर्मपत्नी नाथीबाईने एक पुत्रको जन्म दिया । उसका नाम 'हीरजी' रक्खा गया। हीरजीके पहिले नाथीबाईके तीन पुत्र और तीन कन्याएँ हो चुकी थीं। पुत्रोंके नाम थे संघजी, सूरजी और श्रीपाल व पुत्रियोंके नाम थे- रंभा, राणी और विमला ।' होनहार बिरवानके होत चीकने पात ' इस नियमानुसार हीरजी बचपनहीसे तेजस्वी, सुलक्षण युक्त और आनंदी स्वभाववाले थे । इससे उनके कुटुंबियोंहीके नहीं बल्कि हरेकके जो उन्हें देखता था-उसीके-हृदयमें उनसे प्रेम करनेकी कुदरती प्रेरणा होती थी।
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