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परिस्थिति। देते थे, शुद्धमार्गको प्रकाशित करते थे, और उत्कृष्ट क्रियाएँ पालते थे । इन सब बातोंके अतिरिक्त वे तपस्याएँ भी बहुत ज्यादा किया करते थे। इससे प्रायः श्रावकोंके हृदयोंमें पुनः साधुओंके प्रति भक्तिभावोंका संचार हुआ था । साधुधर्म कैसा होना चाहिए ? साधुओंके लिए किन किन क्रियाओंका करना आवश्यक है ? और साधुओंको किस तरह मोह-मायाका त्याग करना, निःस्पृहताका बक्तर पहिनना
और कैसे शुद्ध उपदेश देना चाहिए ? आदि बातोंका ज्ञान उन्होंने अपने आचरणों द्वारा दिया था। यद्यपि उन्होंने अनेक प्रदेशोंमें फिर कर लोगोंको सन्मार्ग पर चलानेका प्रयत्न किया था और उस प्रयत्नमें उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई थी; और उनके बोये हुए बीजको फलाने फूलानेमें विजयदानमूरिने बहुत कुछ प्रयत्न किया था । तथापि यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि, जिस भाँति समय समय पर राजा महाराजाओं पर प्रभाव डाल कर उन्हें सच्चा उपदेश दे कर राष्ट्रीय स्थितिको सुधारनेवाले एकके बाद दूसरे जैनाचार्य होते आये हैं उसी तरह मुसलमानोंके राज्यकालमें भी एक ऐसे जैनाचार्यकी आवश्यकता थी कि, जो अपने प्रबल पुण्य-प्रतापसे देशके भिन्न भिन्न अधिकारियों पर और खास करके दिल्लीश्वर पर अपना प्रभाव डालते और भारतवर्षमें-मुख्यतया गुजरातमें लगे हुए 'जज़िया' के समान जुल्मी करको नष्ट कराते, अहिंसा प्रधान आर्यावर्त्तमें बढ़ी हुई जीवहिंसाको बंद कराते, जैनोंको अपने पवित्र तीर्थोकी यात्रा करने में जो आपत्तियाँ आती थीं उन्हें दूर कराते, और अपने हक तीर्थोके ऊपरसे खो चुके थे वे उन्हें वापिस दिलाते । इन कार्योंकी महत्तासे यह बात सहज ही समझमें आ जाती है कि, भारतवर्षमें राष्ट्रीय स्थिति सुधारनेके लिए जैसे-अपनी प्रजाको पुत्रवत् पालन करनेवाले एक सुयोग्य सम्राटकी आवश्यकता थी उसी भाँति देशकी हिंसक प्रवृत्तिको दूर करानेका सामर्थ्य रखनेवाले एक महात्मा पुरुषके अवतारकी भी आवश्यकता थी।
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