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सूरि-परिचय।
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थी। इसलिए जिलाधीश प्रजाको तंग करनेमें कोई कसर नहीं रखते थे। किसीके विरुद्ध कोई जा कर यदि शिकायत करता तो उसी समय उसके नाम वारंट जारी कर दिया जाता । यह नहीं दर्याफ्त किया जाता कि, जिसके नाम वारंट जारी किया गया है वह अपराधी है या नहीं; वह साधु है या गृहस्थ । वे तो बस दंड देनेहीको अपनी हुकमतके दबदबेका चिह्न समझते थे। इससे अच्छे २ निःस्पृही और शान्त साधुओंके उपर भी आपत्तियाँ आ पड़ती थीं और उनसे निकलना उनके लिए बहुत ही कठिन हो जाता था। इस अराजकता या सूबेदारोंकी नादिरशाही का अन्त सोलहवीं शताब्दिहीमें नहीं हो गया था। उसका प्रभाव सत्रहवीं शताब्दिमें भी बराबर जारी
रहा था।
अपने ग्रंथके प्रथम नायक हीरविजयसरिको भी-जब वेआचार्य पद प्राप्त करनेके बाद गुजरात प्रान्तमें विचरण करते थे-उस समयके सूबेदारोंकी नादिरशाहीके कारण कष्ट उठाने पड़े थे। सामान्य कष्ट नहीं, महान् कष्ट उठाने पड़े थे। यह कथन अत्युक्ति पूर्ण नहीं है । उन्होंने जो कष्ट सहे थे उनमेक दो चारका यहाँ उल्लेख कर देना हम उचित समझते हैं।
एक वार हीरविजयसूरि विचरण करते हुए खंभात पहुँचे । वहाँ रत्नपाल दोशी नामका एक धनिक रहता था। उसकी स्त्रीका नाम ठकाँ था। उसके एक लड़का भी था। उसकी आयु तीन ही बरसकी थी। उसका नाम था रामजी । वह हमेशा रोगी रहता था। एक वार रत्नपालने सूरिजीको वंदना करके कहा:-" महाराज ! यदि यह छोकरा अच्छा हो जायगा और उसकी मरजी होगी तो मैं उसे आपकी चरण-सेवा करनेके लिए भेट कर दूंगा।"
थोड़े दिन बाद आचार्यश्री वहाँसे विहार करके अन्यत्र चले
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