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सूरीश्वर और सम्राट् ।
जब एक तरफ हम राजाओं की उदारता देखते हैं और दूसरी तरफ उनकी ऐसी शिकारी प्रवृत्ति देखते हैं तब हमें बड़ा ही आश्चर्य होता है
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मान लो कि, दो राजाओं के आपसमें वर्षो तक युद्ध हुआ हो, लाखों मनुष्य और करोड़ो रुपयोंकी उसमें आहुति हुई हो । उनमें से एक राजा दूसरे के लिए सोचता हो कि, यदि वह पकड़ा जाय तो उसके टुकड़े टुकड़े कर डालूँ । जिस समय उसके हृदयमें ऐसे क्रूर परिणाम हों उसी समय यदि दूसरा राजा मुँहमें तिनका ले कर पहिले राजा के पास चला जाय तो क्या वह उसे मारेगा ? नहीं, कदापि नहीं । वह यह सोच कर उसे छोड़ देगा कि, यह मेरे सामने पशु हो कर आया है इसको मैं क्या मारूँ ? ऐसी उदारता दिखानेवाले राजा जब, घास खा कर अपना जीवन - निर्वाह करनेवाले, अपना दुःख दूसरोंको नहीं कहनेवाले और हमेशा पीठ दिखा कर भागनेवाले पशुओं को मारते हैं तब बड़ा आश्चर्य होता है ? जिस तलवार या बंदूकका उपयोग राजाको अपनी प्रजाकी ( चाहे वे मनुष्य हों या पशु ) रक्षा करनेमें करना चाहिए उसी तलवार या बन्दुकका उपयोग जो राजा अपनी प्रजाका अन्त करनेमें करते हैं वे क्या अपने हथियारों को लज्जित नहीं करते हैं ? शत्रुओंको ललकार कर उनका मुकाबिला करनेकी शक्तिको जलाजली दे कर निर्दोष और घास पर अपना जीवन बितानेवाले पशुओं पर अपनी वीरताकी आजमाइश करनेवाले वीर ( ! ) क्या अपनी वीरताको लज्जित नहीं करते हैं ? अपने एक नायकने - सम्राट्ने तो शिकार की हद ही कर दी थी । उसने समय समय पर जो शिकारें की थीं उनका वर्णन न कर, केवल शिकारके एक ही प्रसंगका यहाँ वर्णन किया जाता है ।
सन् १९६६ ईस्वीमें अकबर के भाई महम्मद हकीमने
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