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सूरीश्वर और सम्राट् ।
उसके हृदयमें यह सवाल उठा उसके पहिले ही; दूसरे शब्दों में कहें तो उसके हृदय में वास्तविक धर्मकी तलाश करनेकी इच्छा पैदा हुई उसके पहिले ही उसके मनमें मुसलमानी धर्म पर अरुचि हो गई थी । इसके साथ ही उसके हृदय में हिन्दु मुसलमानों को एक करनेकी भावना भी उत्पन्न हुई थी । उस इच्छाको पूर्ण करनेही के लिए उसने सन् १९७९ ईस्वी 'ईश्वरका धर्म ? ( दीन-इ-इलाही ) नामके एक नये धर्मकी स्थापना की थी और इस नवीन धर्ममें हिन्दु मुसलमानोंको सम्मिलित करनेका प्रयत्न करता था । इस प्रयत्न उसको बहुत कुछ सफलता भी मिली थी ।
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कइयों का मत है कि, अकवर मानाभिलाषी ज्यादा था । यहाँ तक कि वह अपना 'ईश्वरीय अंश' की तरह परिचय देता था । इसी इच्छा से उसने इस नवीन धर्मकी स्थापना की थी । लोगों को कुछ न कुछ चमत्कार दिखाना उसे ज्यादा अच्छा लगता था । रोगीका रोग मिटाने के लिए वह अपने पैरका धोया हुआ पानी देता था । उसके चमत्कार के लिए धीरे धीरे उसकी दूकान अच्छी जम गई थी । उसका प्रभाव यहाँ तक बढ़ा कि, बच्चे के लिए कई स्त्रियाँ उसके नामसे मानत भी रखने लगी थीं। जिनकी इच्छा पूर्ण हो जाती थी वह मानत पूर्ण करने आती थी । अकबर भी वे जो कुछ चीजें ले कर आती थी उनका स्वीकार करता था ।
अकबरके उपर्युक्त बर्ताव से और नवीन धर्मकी स्थापनासे बहुतसे मुसलमान उसका विरोध करने लगे थे । परिणाम यह हुआ कि, सन् १९८२ ईस्वी में अकबर भी प्रकट रूपसे मुसलमान धर्मका विरोधी हो गया था । खुले तोरसे मुसलमान धर्मका विरोधी बना इसके पहिले ही उसने हिन्दु और मुसलमान दोनोंके साथ समान रूपसे वर्ताव करना प्रारंभ कर दिया था । यह वर्ताव उसने उस
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