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सूरीश्वर और सम्राट् । नादिरशाहीके सिवा और क्या था ? जिस तिस तरहसे प्रनाको बरबाद करनेके सिवा और क्या था ? अस्तु ।
ऊपर जिन उपद्रवोंका वर्णन किया गया है उनमेंका अन्तिम सं. १६३६ में हुआ था । यह हम ऊपर भी कह चुके हैं। उसके बाद वे शान्तिके साथ विहार करने लगे थे । सं. १६३७ में सूरिजी 'बोरसद' पधारे थे । वहाँ, उनके पधारनेसे बहुतसे उत्सव हुए थे । उस वर्ष उन्होंने खंभातहीमें चौमासा किया था । वहाँके संघवी उदयकरणने सं. १६३८ (ई. स. १५८२ ) के महा सुदी १३ के दिन सूरिजीसे श्रीचंद्रप्रमुकी प्रतिष्ठा भी कराई थी। उसने आबू, चितोड़ आदिकी यात्राके लिए संघ भी निकाला था। तत्पश्चात सूरिजी विहार करके गंधार पधारे।
ग्रंथके प्रथम नायक श्रीहिरविजयसूरिके अवशेष वृत्तान्तको आगेके लिए छोड़ कर अब हम ग्रंथके दूसरे नायक सम्राट्के विषयमें लिखेंगे।
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