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ફૂટ
सूरीश्वर और सम्राट् ।
प्रवेश करते ही वहाँ के हिन्दु राजा राणाप्रसादको हुमायूँकी हालत पर तरस आया । एक राजवंशी अतिथिकी दुर्दशा देख कर उसका अन्तःकरण दयासे पसीज गया । उसने हुमायूँको आश्रय दिया । इतना ही नहीं वह हुमायूँको कष्टोंसे छुड़ाने के लिए यथासाध्य प्रयत्न भी करने लगा । क्या आर्य मनुष्योंका आर्यत्व कभी सर्वथा नष्ट हुआ है ? ' एक विदेशी मुसलमान राजवंशी पुरुषको किसलिए आश्रय दिया जाय ?' इस बातका कुछ भी विचार न करके अमरकोटके हिन्दु राजाने हुमायूँको आश्रय दिया था। इतना ही नहीं यदि यह कहा जाय कि, हुमायूँको प्राणदान दिया था तो भी अत्युक्ति नहीं होगी । राज्य-भ्रष्ट होने बाद हुमायूँको यहीं आ कर सबसे पहिले शान्ति मिली थी । यहीं आ कर अपने भाग्यकी तेजस्वी किरणोंके फिरसे प्रकाशित होनेकी उसे आशा हुई थी। ई. स. १५४२ के अगस्त महीने से उसकी किस्मत का सितारा चमकने लगा था ।
अमरकोट के राजाने हुमायूँकी अच्छी आवभगत की, उसको आश्वासन दिया और सलाह दी कि, - मेरे दो हजार घुड़स्वार और मेरे मित्रोंकी ५००० सेना लेकर तुम ठट्ठा और बक्खर प्रान्तों पर चढ़ाई करो । हुमायुंने यह सलाह मान ली । वह २० वीं नवम्बरको दो तीन हजार आदमी ले कर वहाँसे रवाना हुआ । उस समय उसकी स्त्री हमीदाबेगम सगर्भा थी, इसलिए वह उसको वहीं पर छोड़ गया । कुछ दिन बाद अमरकोटमें, हिन्दु राजाके घर हमीदाबेगमने ई. स. १९४२ के नवम्बरकी २३ वीं तारीख गुरुवारको एक पुत्र रत्नको जन्म दिया । उस समय हमीदाबेगमकी आयु केवल पन्द्रह बरसकी थी । पुत्रका नाम बदरुद्दीन महम्मद अकबर रक्खा गया । विद्वान् लोग कहते हैं, - यह नाम इसलिए रक्खा गया था कि, हमीदाबेगम के पिताका नाम अलि अकबर था । भारतवर्ष जिस सम्राट्की प्रतीक्षा
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