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संख्या १]
प्रवासियों की परिस्थिति
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पार्लियामेंट के हाथ में है । तब मालिक का विरोध करना मातहत के लिए कैसे सम्भव हो सकता है ? असली रहस्य यही है और इसी लिए साम्राज्य सरकार के इशारे पर भारत-सरकार को नाचना पड़ता है। ___कांग्रेस में भी अब विदेशी विभाग कायम हो गया है । इस विभाग की कहानी भी लम्बी है । सन १९२५ में इन पंक्तियों के लेखक के ही विशेष उद्योग से श्रीमती सरोजिनी देवी की अध्यक्षता में कानपुर-कांग्रेस में प्रवासी-विभाग की स्थापना के लिए एक प्रस्ताव पास हुअा था, किन्तु वह कई साल तक केवल काग़ज़ को ही शोभा बढ़ाता रहा। कलकत्ता-कांग्रेस में पंडित मोतीलाल जी नेहरू के नेतृत्व में इस प्रस्ताव की पुनरावृत्ति की गई-केवल अन्तर यह हुया कि 'प्रवासी-विभाग' की जगह उसका नाम 'विदेशी विभाग' २क्खा गया। कुछ दिनों तक एक विशेष मंत्री द्वारा कुछ काम भी हुअा, किन्तु सन् १९३० में सत्याग्रह संग्राम के समय कांग्रेस के अन्य विभागों की भाँति यह विभाग भी लुप्त हो गया। अब पंडित जवाहरलाल नेहरू की इच्छा से इस विभाग का काम फिर शुरू हुअा है। कांग्रेस के नवीन विधान के अनुसार देश में । बाहर की कोई संस्था उसमें शामिल नहीं रह गई है, प्रवासियों के प्रतिनिधित्व का अन्त हो गया है और कांग्रेस [स्वामी भवानीदयाल संन्यासी श्रीयुत भीखाभाई भूलाभाई में उनके लिए कोई स्थान नहीं रहा। मुझे तो राष्ट्रपति के
के साथ। विशेष निमन्त्रण-द्वारा लखनऊ-कांग्रेस में शामिल होने प्रतिष्ठा एवं मर्यादा की रक्षा और उसकी वृद्धि के लिए
और कांग्रेस-मंच से बोलने का अवसर दिया गया था। लगातार अान्दोलन करने में कटिबद्ध हैं । उनको पूर्ण कांग्रेस के इस नवीन विधान से प्रवासी भारतीयों में अस- विश्वास है कि कभी न कभी इस अमावस की अँधेरी रात न्तोष की अभिवृद्धि होना अस्वाभाविक नहीं है। का अन्त होगा और भाग्य-भानु की सुनहरी किरणे
ऐसी स्थिति में प्रवासियों का परमात्मा ही रक्षक है। अवश्य छिटकेगी। वह दिन चाहे शीत्र यावे अथवा कुछ फिर भी प्रवासी भाई निराश नहीं हुए हैं। वे अपने पैरों देर में, किन्नु अावेगा अवश्य । प्रवासी भाई उसी मंगलके बल खड़ा होना सीख गये हैं और अपनी मातृभूमि की मय दिवस की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
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