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( १८ ) महोपाध्याय समयसुन्दर "जयवंता गुरु राजीयारे, श्रीजिनसिंहसरि राय । समयसुन्दर तसु सानिधि करी रे, इम पभणइ उवझाय रे॥६॥"
[सिंहलसुत प्रियमेलक रास | सं० १६७२] अतः यह निश्चित है कि सं० १६७१ के अंतिम भाग में या १६७२ के पोष मास के पूर्व ही आपको उपाध्याय पद प्राप्त हो गया था।
महोपाध्याय पद-परवर्ती कई कवियों ने आपको 'महोपाध्याय' पद से सूचित किया है; जो वस्तुतः श्रापको परम्परानुसार प्राप्त हुआ था। सं० १६८० के पश्चात् गच्छ में आपही वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध
और पर्यायवृद्ध थे। साथ ही खरतरंगच्छ की यह परम्परा रही है कि उपाध्याय पद में जो सबसे बड़ा होता है, वही महोपाध्याय कहलाता है। अतः स्वतः सिद्ध है कि आपकी महिमा और योग्यता से प्रभावित होकर यह पद लिखा गया है। यही कारण है कि वादी हर्षनन्दन उत्तराध्ययन सूत्र के प्रारम्भ में "श्रीसमयसुन्दर महोपाध्याय चरणसरोरुहाभ्यां नमः'' लिखता है।
प्रवास और उपदेश
कवि के स्वरचित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, तीर्थमालायें और तीर्थस्तव साहित्य को देखते हुये ऐसा प्रतीत होता है कि कवि का प्रवास उत्तर भारत के क्षेत्रों में बहुत लम्बा रहा है। सिन्ध, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, सौराष्ट्र, गुजरात के प्रदेशों में विचरण अत्यधिक रहा है। प्रशस्तियाँ आदि के अनुसार वर्गीकरण किया जाय तो इस प्रकार होगा:1 "संवत सोलबहुत्तरि समइ रे, मेडतानगर मझारि।'
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