________________
महोपाध्याय समयसुन्दर
( १७ )
वाचनाचार्य पद- १६४६ फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को लाहोर में जिस समय पाचक महिमराज को श्राचार्य श्री ने आचार्य पद प्रदान कर जिनसिंहसूरि नाम उद्घोषित किया था; उसी समय गणि पद भूषित कवि को 'वाचनाचार्यमा पद प्रदान कर सम्मानित किया था। __उपाध्याय पद-श्री राजसोम गणि प्रणीत 'समयसुन्दर गुरु गीतम्' के अनुसार यह निश्चित है कि तत्कालीन गच्छनायक श्रीजिनसिंहसूरि ने लवेर। में आपको 'उपाध्याय' पद से अलंकृत किया था, किन्तु संवत् का इस गीत में उल्लेख न होने से हमें उनके ग्रन्थों के आधार से ही निश्चित करना है ।
सं० १६६८ तक की आपकी कृतियों में उपाध्याय पद का कहीं भी उल्लेख नहीं है। नाहटाजी के लेखानुसार सं० १६७१ में लिखित अनुयोगद्वारसूत्र की पुष्पिका में भी वाचक पद का ही उल्लेख है। किन्तु कवि की १६७१ के पश्चात् की रचनाओं में उपाध्याय पद का उल्लेख है । देखिये:"तेषां शिष्यो मुख्यः, स्वहस्तदीक्षित सकलचन्द्रगणिः। तच्छिध्य-समयसुन्दर सुपाठकैरकृत शतकमिदम् ॥४॥"
[विशेषशतक सं० १६७२] T "तेषु च गणि जयसोमा, रत्ननिधानाश्च पाठका विहिता। गुणविनय-समयसुन्दरगणिकृतौ वाचनाचार्यों ।।"
कर्मचन्द्रवंश प्रबन्ध + "श्रीजिनसिंहसूरिंद, सहेर लवेरइ हो पाठक पद कीयउ” * "विक्रमसंवति लोचनमुनिदर्शनकुमुदवांधव (१६७२) प्रमिते ।
श्रीपार्श्वजन्मदिवसे, पुरे श्रीमेडतानगरे ॥२॥"
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org