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महोपाध्याय समयसुन्दर
गणिपद-भावशतक (र० सं० १६४१) में सूचित 'गणि* शब्द को देखते हुये ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी मेधावी प्रतिभा
और संयमशीलता से आकर्षित होकर आचार्य श्रीजिनधन्द्रसूरि ने स्वकरकमलों से वाचक श्री महिमराज के साथ ही सं० १६४० माघ शुक्ला पंचमी को जेसलमेर में कवि को 'गणि' पद प्रदान किया होगा! * "तच्छिष्य समयसुन्दरगणिना स्वाभ्यास वृद्धिकृते ||६||
शशिसागररसभूतल (१६४१) संवति विहितं च भावशतकमिदम ॥१०॥" सं०१६४६ फाल्गुन कृष्णा १० के दिन आचार्यश्री के ही करकमलों से आचार्य पद प्रदान करवा कर जिनसिंहसूरि नाम रखवाया। (देखिये, उ० समयसुन्दर रचित 'जिनसिंहसूरि पदोत्सव काव्यं)
सम्राट् जहांगीर भी आपकी प्रतिभा से काफी प्रभावित था। यही कारण है कि अपने पिता का अनुकरण कर स० जहाँगीर ने आपको युगप्रधान पद प्रदान किया था।
. ( देखें, राजसमुद्र कृत 'जिनसिंहसूरि गीतम्' )। गच्छनायक बनने पश्चात् आपकी अध्यक्षता में मेड़ता निवासी चौपड़ा गोत्रीय शाह आसकरण द्वारा शत्रुञ्जय तीर्थ का सङ्घ निकाला गया था।
सं० १६७४ में आपके गुणों से आकर्षित होकर, आपका सहवास एवं धर्मबोध प्राप्त करने के लिये सम्राट जहांगीर ने शाही स्वागत के साथ अपने पास बुलाया था। आचार्यश्री भी बीकानेर से विहार कर मेड़ता आये थे। दुर्भाग्यवश वहीं सं० १६७४ पोष शुक्ला त्रयोदशी को आपका स्वर्गवास हो गया।
आपके जिनराजसूरि और जिनसागरसूरि आदि कई विद्वान् शिष्य थे।
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