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समय- ॥१४॥
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जो कोई आत्मध्यान करे। तब अशुद्ध रागादिक विभावदशा मिटाय सिद्धस्वरूपकी प्राप्ति होय है॥४॥
॥ अव ज्ञाताका चिंतवन कथन । सबैया ३१ साअपनेही गुण परजायसो प्रवाहरूप, परिणयो तिहूं काल अपने आधारसो।। अंतर वाहिर परकाशवान एकरस, क्षीणता न गहे भिन्नरहे भो विकारसो॥ चेतनाके रस सरवंग भरिरह्या जीव, जैसे लूण कांकर भन्यो है रस क्षारसो॥
पूरण खरूप अति उज्जल विज्ञानधन, मोको होहु प्रगट विशेष निरवारसो ॥ १५॥ __ अर्थ-यो जो कोई आत्मानामा पदार्थ है सो ज्ञानधन (विशेष ज्ञानमय ) है सो-तीन कालमें है प्रवाहरूप ( अविछिन्न, अखंडित,) आपके ज्ञानादिक गुण अर गुणके पर्यायको स्वयंसिद्ध ( परके
आश्रयविना ) परिणमि रह्याहै । अर ये विज्ञानधनकी ऐसी महिमा है की, तातै अंतर अर बाह्य एक ४ चेतना रस (गुण ) से प्रकाशवान हो रह्या है, (आत्माको जाने सो अंतर प्रकाश है अर बाह्य है वस्तुको जाने सो बाह्य प्रकाश है ) चेतना गुणसे रहित नहीं होय है अर भव जो संसार परिभ्रमण
ताके विकारसो भिन्न रहे है । सर्व प्रदेशमें चेतनाको रसते जीव भय है जैसे लवणका कांकरा, 5 सर्वांगमें क्षार रससे भय है तैसे । ऐसा पूर्णस्वरूपसे अति उज्जल विज्ञानवन समस्त रागादिक विभावर ॐ निवारण करिके मेरे प्रगट होऊं, ये रीते ज्ञाता पुरुष मनमें चितवन करे अर इसमे स्थिर रहे ॥१५॥
॥ अव द्रव्य पर्याय अभेद कथन ॥ कवित्ता ॥जहां ध्रुवधर्म कर्मक्षय लच्छन, सिद्ध समाधि साध्यपद सोई॥
॥१४॥ शुद्धोपयोग जोग महि मंडित, साधक ताहि कहे सबकोई ॥
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