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समय
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जैडस्वरूषकी अर पुद्गलका संयोगकी कल्पना ही नही है । आदिअंततक समस्त कालमें एक चैतन्य र गुणकरि 'युक्त रहे है, ऐसा शुद्ध नयके अवलंबन - ( अपेक्षा ) से जिनेंद्रके वचनमें प्रगट कह्याहै। । अर जैसा कह्या है तैसाही वचन व्यवहारमें (शास्त्रमें ) पण विराजमान है ॥ ११॥
. .. . . ॥ अव हितोपदेश कथन ॥ कवित्त ॥सतगुरु कहे भव्यजीवनसो, तोरहु तुरत मोहकी-जेल ॥समकितरूप गहो आपनोगुण, करहु-शुद्ध अनुभवको खेल ॥ पुद्गलपिंड भावरागादिक, इनसो नहि तिहारो मेल ॥
ये जड प्रगट गुपत तुम चेतन, जैसे भिन्न तोय अरु तेल ॥ १२॥ * अर्थ—साचो गुरु भव्यजीवसू कहे है-अहो भव्यलोक हो ? सचेत होऊ, मोहके बंधको शीघ्र है
तोडो। आपना सम्यक्गुणकू ग्रहण करो अर ते समकितगुण लेके आपके शुद्ध अनुभवमें 8 खेल खेलो । फेर गुरुकहे-ये देखनेमें जो शरीर आवे है सो पुद्गलपिंड है अर ज्ञानावर्णादिक आठ , * द्रव्यकर्म है सोही पुद्गलपिंड है तथा रागद्वेषादिक भाव है ते तो इस पुद्गलपिंडका स्वभाव है ताते हैं ( इन वस्तुके साथ तुमारा मेल (मिलाप) नहीहै । कैसे के ? ये शरादिक अचेतन (जड ) है अर प्रगट हैं रूपी है अर तुम चेतन हो तथा गुप्त ( अरूपी) हो तातै पुद्गलपिंडकी अर तुमारी - भिन्नता ठहरी हैं जैसे पाणी अर तेल भिन्न है तैसे आत्मा अर पुद्गल भिन्न जानना ॥ १२॥ .
॥ अव ज्ञाता विलास कथन ॥ सवैया ३१ सा ॥कोऊ बुद्धिवंत नर निरखे शरीर घर, भेदज्ञान दृष्टीसो विचार वस्तु वास तो॥
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॥१३॥