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P अर्थ जैसे सूर्यका उदय होते पृथ्वीमें धूप तो अचल फैलत है अर अंधकारका पटल दूर होय । है। तैसे जबतक परमात्माका अनुभव रहे है तबतक कोऊ प्रकारकी द्विविधा नही अर पक्षपात हूं नही है। याहीते जहां शुद्धात्माका अनुभव होय है तहां नयका लेशहूं नहीं है, नयतो वस्तुका येक गुण साधनेकू है, अर अनुभवतो सिद्धवस्तुको होय है तातै अनुभवमें नयका लेश नही, अर अनुभवमें प्रत्यक्ष परोक्षादिक प्रमाणका पण प्रवेश नहीं है, प्रमाण तो असिद्ध वस्तू साधने कू है, पण सिद्धवस्तूकू क्या साधे, अर अनुभव सिद्ध होय तहां निक्षेपका वंशही क्षय होय है, निक्षेपतो वस्तु जिसजिसरूप तिष्टे है तिसकू तिसतिसरूप समझावनेकू है, अर जहां अपना शुद्ध आत्मवस्तुका । एकाकार अनुभव ( समझ ) भया है तहां निक्षेपका प्रयोजन नहीं है । अनुभव होनेके पूर्वअवस्थामें 3
जेजे नय, प्रमाण, निक्षेप, शुद्धात्माके सिद्धिके अर्थी साधक थे, तेही नयनिक्षेपादिक शुद्धात्मस्वरूपका ६ अनुभवमें लीनभयां ताको बाधक होय है. जबतक नय, प्रमाण, अर निक्षेपके परिवार है तबतक |
अनुभव न होय, बाकी रागद्वेषरूपदशा बाधक होय ताकी तो बातही कहा है ? ये तो बाधक प्रगटही है| Kारागद्वेष है तहां नयादिक कहना योग्य है ॥ १०॥
॥ अव जीव व्यवस्था वचनद्वार कथन ॥ अडिल्ल ॥आदिअंत पूरण खभाव संयुक्त है । पर सरूप पर जोग कलपना मुक्त है। सदा एकरस प्रगट कही है जैनमें । शुद्ध नयातम वस्तु विराजे बैनमें ॥ ११ ॥ अर्थ-आदिमें निगोदअवस्था अर अंतमें सिद्धअवस्था, बीचमें अनेक अनेक अवस्था इन सब अवस्थामें आत्मा आपना अनंत गुणात्मक परिपूर्ण स्वभाव संयुक्त रहे है । अर इस आत्मामें पर जे
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