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( ५६ ) पूर्ववर्ती 'र' का लोप अर्क-अक-अक्क । वर्ग-वग-वग्ग ।
दीर्घ-दिघ-दिघ्य-दिग्ध । वार्ता-वता-वत्ता।
सामर्थ्य-सामथ-सामथ्थ-सामत्थ । परवर्ती 'र', क्रिया-किया । ग्रह-गह । चक्र-चक-चक्क ।
रात्रि-रति-रत्ति । धात्री-घाती और धाई। पूर्ववर्ती 'ल' ,, उल्का-उका-उक्का । वल्कल-वकल-बक्कल । परवर्ती 'ल' ,, विक्लव-विकव-विक्कव । श्लक्ष्ण-सएह । विसर्ग का लोप दुःखित-दुखि-दुख्खिा --दुक्खिथा।
दुःसह-दुसह-दुस्सह । निःसह-निसह-निस्सह।
निःसरइ-निसरइ-निस्सरइ । (पालिभाषा में होने वाले ऐसे रूपान्तरों के लिए देखिएपालिप्रकाश पृ० २६, ३०, ३१ (नि. ३६, ३७), पृ० ३२, ३३ (नि. ३८, ३६), पृ० ३५ (नि० ४२), पृ० १० (नि० १२), पृ० १२ (नि० १५, १६)। । सूचना :-जहाँ पूर्ववर्ती और परवर्ती दोनों प्रकार के व्यञ्जनों के
लोप होने का प्रसंग श्रा जाय वहाँ प्रचलित प्रयोगों को ध्यान में रख कर लोप करना उचित है। जैसेउद्विग्न, द्विगुण, द्वितीय इत्यादि शब्दों में 'दू' में 'द' पूर्ववर्ती है और 'व' परवर्ती है अतः यहाँ 'द्' तथा 'व' दोनों के लोप का प्रसंग है । उद्विग्न का 'उबिग्ग', द्विगुण का 'बिउण' तथा द्वितीय के 'बिईय' प्रयोग बनते हैं इस लिए उन शब्दों में केवल पूर्ववती 'द्' का ही लोप करना चाहिए परवर्ती 'व' का लोप नहीं । 'व' का लोप करने से उद्दिग्ग प्रयोग बनता है और ऐसा प्रयोग विशेषतः नहीं मिलता है। इसलिए 'व' का लोप न करके 'द्' का ही लोप करना उचित है।]
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