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( १७२ ) रूप बताते समय शब्द (नाम) का मूल अंग और प्रत्यय का अंश दोनों पृथक्-पृथक् बताये गये हैं और उसके साथ ही उस पद्धति से साधित रूप भी अलग-अलग बताये गए हैं । अतः पाठक उक्त पद्धति से ही अकारान्त शब्द के रूप समझ लेंगे।
साधनपद्धति की जानकारी १. प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी और सप्तमी विभक्ति के 'स्वरादि
प्रत्यय' तथा पंचमी का केवल 'आ' प्रत्यय लगाने पर अंग के अन्त्य 'अ' का लोप करना चाहिए ( देखिए पृ० ६५ नियम-१)। जैसे :
वोर + ओ=वीरो २. वीर + म् = वोरं (विरं)
वोरम् + अवि - वीरं अवि, वीरमवि, ( देखिये पृ० ६६, ९७; क्रमशः
नियम १७, १८)। ३. तृतीया और षष्ठी विभक्ति के 'ण' तथा सप्तमी विभक्ति के 'सु'
परे रहने पर (आगे) विकल्प से अनुस्वार होता है । वीर + एण = वोरेण, वीरेणं । वीर + ण = बीराण, वीराणं । वीर + सु = बीरेसु, वीरेसुं । तृतीया और सप्तमी विभक्ति के बहुवचनोय प्रत्ययों के पूर्व अकारान्त अंग के अन्त्य 'अ' को 'ए' तथा इकारान्त और उकारान्त अङ्ग के अन्त्य 'इ' तथा 'उ' को दीर्घ हो जाता है । वीर + हि =वीरेहि । रिसि + हि = रिसीही। भाणु + हि = भाणूहि।
वीर + सु = वीरेसु । रिसि + सु = रिसीसु । भाणु + सु = भाणूसु । ५. पञ्चमी के 'ओ', 'उ', हितो' प्रत्ययों के पूर्व स्वरान्त अंग के
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